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"चूर्णिकार के उपाध्याय प्रद्य म्न क्षमाश्रमण थे?"
पण्डितजी का उक्त कथन जैन शैली की कमजानकारी का परिणाम है, क्योंकि चूर्णिकार स्वयं प्रद्युम्न क्षमाश्रमण को अपना अर्थदायी बताते हैं और सूत्रों का अर्थ पढ़ाने वाले आचार्य ही होते हैं, उपाध्याय नहीं, उपाध्याय का कर्त्तव्य शिष्यों को सूत्र पढाना मात्र है, अर्थ देना नहीं।
(१) 'कमठक' को कमण्डलु बताना । (२) 'लोट्टो' को लोटा कहना। (३) 'कणिक्का' को आटे का पिण्ड बताना।
इत्यादि बातें पण्डितजी की प्राकृत भाषा की न्यूनता सूचित करती हैं।
कमठक-कमण्डलु नहीं होता, किन्तु कटोरे के आकार का एक पात्र होता है।
लोट्ट-शब्द पीसे हुए धान्य के अर्थ में प्राकृत भाषा में माना गया है, लोटे के अर्थ में नहीं।
कणिक्का-गुंदे हुए आटे के पिण्ड के अर्थ में नहीं किन्तु मोटे पीसे हुए गेहूँ अथवा जव के कोरे आटे के अर्थमें रूढ है।
पण्डित मालवणिया ने हिंसा के उत्सर्ग, अपवाद, आहार और औषध के अपवाद, विकृतियों के ग्रहण-त्याग, ब्रह्मचर्य की साधना में कठिनाई आदि शीर्षकों के नीचे जो ऊहापोह किया है, वह न करते तो बहुत ही अच्छा होता, इस चर्चा से मालवणिया की विद्वत्ता तो प्रकट नहीं हुई पर अनजान पाठकों के लिए एक भ्रान्ति का साधन अवश्य तय्यार हुआ है जो किसी भी प्रकार से हितकर नहीं कहा जा सकता।
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