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________________ २८ अध्ययन के पृष्ठ ७ में पण्डितजी लिखते हैं "अनाचार के कारण जो प्रायश्चित्त आता है, उसका विधान निशीथ में विशेष रूप से मिलता है ।" इसी पृष्ठ में नीचे पण्डितजी लिखते हैं "केवली और चतुर्दश पूर्वधर को प्रायश्चित्त दान का जैसा अधिकार है, प्रकल्प - निशीथधर को भी वैसा ही अधिकार है । " ऊपर के दोनों वाक्यांश पण्डितजी के छेदसूत्र सम्बन्धी अल्पज्ञता के सूचक हैं, क्योंकि निशीथ में ही नहीं प्रत्येक छेदसूत्र में स्थविरों के लिए अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार के प्रायश्चित्त नहीं होते, किन्तु अनाचार के ही होते हैं, शेष तीन प्रकारों के प्रतिसेवन में प्रायश्चित्त का विधान केवल "जिनकल्पी" साधु के लिए ही है । निशीथधर को भी केवली तथा चतुर्दश पूर्वधर के जैसा प्रायश्चित्त दान का अधिकार बताना अशास्त्रीय है, केवली, चतुर्दश पूर्वधर द्वारा दिये गए प्रायश्चित्त से जैसी शुद्धि होती है, वैसी श्रुतव्यवहारी से नहीं होती, आगम व्यवहारी प्रायश्चित्त लेनेवाले के मानसिक भावों को जानने वाले होते हैं, आलोचक यदि अपने दोषों को छिपाता है तो वे उसको प्रायश्चित्त नहीं देते परन्तु निशीथधर आलोचकों के कथनानुसार जो आपत्ति आती है, उसका प्रायश्चित्त दे देते हैं । प्राचीन काल में दशकालिक की रचना होने के पूर्व दीक्षार्थि को आचारांग का प्रथम अध्ययन पढाने के बाद दीक्षा दी जाती थी, यह कथन आगम विरुद्ध और शैली विरुद्ध भी है, शस्त्रपरिज्ञा पढाने की बात प्रव्रज्या देने के बाद और छेदोपस्थापना होने के पहले की है, न कि गृहस्थावस्था में किसी को शस्त्र परिज्ञाध्ययन पढाया जाता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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