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________________ ३३५ भट्टारक श्री विजयराजसूरि ने की थी, प्रतिष्ठा के समय में महाराजाधिराज अखयराजजी का राज्य था । (४) उक्त जैन मन्दिर के प्रागे दक्षिण में कुछ ऊँचे चौमुखजी का द्विभूमिक मन्दिर प्राया हुआ है, नीचे चारों गर्भगृहों में तीनतीन जिन प्रतिमाएँ है, ऊपर चारों तरफ के गर्भगृहों में १-१ प्रतिमा है, उत्तर की तरफ मण्डप के आगे बाँए दाहिने तरफ अंधेरे में दो देहरियाँ हैं, प्रतिमाएं हैं तथा लेख भी हैं पर अंधेरा होने से लिख नहीं सके, बाकी उत्तर, पूर्व दक्षिण और पश्चिम दिशाओं के गर्भगृहों में जो प्रतिमाए हैं, उनके लेख लिये गए हैं। उत्तर दिशा के निचले गर्भगृह में प्रतिष्ठित पित्तलमय बड़ी प्रतिमाए १५६६ के वर्ष में फाल्गुन सुदि १० के दिन अचलगढ में महाराजाधिराज श्री जगमालजी के राज्य में प्रतिष्ठित हुई थीं, इसकी प्रतिष्ठा पोरवाल ज्ञातीय सं. कुंवरपाल पुत्र सं. रतना और रतना के पुत्र संघवी सालिक उसकी भार्या सुहागदे के पुत्र संघवी सहसा ने अपने करवाए गए चतुर्मुख मन्दिर के उत्तर द्वार में प्रतिष्ठित करने के लिए मूलनायक आदिनाथजी का पित्तलमय बिम्ब करवाया और इसकी प्रतिष्ठा तपगच्छीय श्री सोमसुन्दर सूरि श्री मुनिसुन्दरसूरि, श्री जयचंद्रसूरि, श्री विशालराजसूरि, श्री रत्नशेश्वर सूरि के क्रम प्राप्त पट्टधर श्री लक्ष्मीसागर सूरि और लक्ष्मीसागर सूरि के अनन्तर श्रीसोमदेव सूरि, उनके शिष्य सुमति सन्दरसूरि के शिष्य गच्छ नायक श्री कमलकलश सूरि के शिष्य श्री गच्छनायक जयकल्याण सूरिजी ने अपने चरणसुन्दर सूरि प्रमुख परिवार के साथ की। उपर्युक्त चतुमुख प्रासाद के नीचे के चारों गभारों में ३-३ प्रतिमाएँ हैं, उत्तर द्वार के गभारे में १ मूलनायक और २ काउसग्गिए कुल ३ पित्तलमय प्रतिमाएँ हैं, पूर्वद्वार में एक मूलनायक पित्तलमय हैं और २ काउसग्गिए पाषाणमय हैं, दक्षिणद्वार में मूलनायक तथा बाईं तरफ की प्रतिमा पित्तलमय हैं, तब दाहिने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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