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प्रमाण नहीं, प्रत्युत इन नियुक्तियों को भद्रबाहु स्वामी के बाद की कृतियां मानने के लिए अनेक प्रमाण मिल सकते हैं ।
आवश्यक निर्युक्ति को ही लीजिये, श्रुतज्ञान की प्रकृतियों का वर्णन करने के बाद नियुक्तिकार " कत्तो मे वण्णे" इस गाथा में कहते हैं, श्रुत भगवन्त की सर्व प्रकृतियों का वर्णन करना मेरी शक्ति के बाहर है, इसी गाथा की व्याख्या करते हुए आवश्यक चूर्णिकार कहते हैं
'श्रुत की सर्व प्रकृतियों का निरूपण करना चतुर्दश पूर्वधर अथवा दशपूर्वधरों की शक्ति का विषय है, मैं वैसा न होने से यह गाथा कहकर इस गाथा सूत्र के द्वारा वर्णन यहां ही पूरा करता हूँ ।
आवश्यक चूर्णि वर्तमान जैन चूर्णियों में सब से प्राचीन है, इसके आन्तर प्रमाणों से सिद्ध होता है कि आवश्यक चूर्णि हूण लोगों के भारत में आने के बाद तुरन्त बनी हुई विक्रमीय षष्ठी शती की कृति है, इस चूर्णि के कथनानुसार आवश्यक निर्युक्तिकार दशपूर्वधर से निम्नकोटि के व्यक्ति थे, इसका तात्पर्यार्थ यही निकलता है कि आवश्यक निर्युक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु नहीं थे ।
कतिपय विद्वान् कल्पना करते हैं कि आवश्यक आदि ग्रन्थों के के नियुक्तिकार दूसरे भद्रबाहु मान लिए जाएँ तो क्या आपत्ति है ? मैं पूछता हूँ, दूसरे भद्रबाहु हुए थे, इस बात को प्रमाणित करने के लिए आपके पास क्या प्रमाण है ? श्वेताम्बर साहित्य में भद्रबाहु ज्योतिषी वराहमिहिर के भाई होने की जो कहानी प्रचलित है, वह बिलकुल अर्वाचीन है और दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान द्वितीय ज्योतिषी भद्रबाहु को विक्रम की दूसरी शती के आसपास हुआ मानते हैं, उसका आधार एक " आदि पुराण" “धवला, जयधवला, त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति, श्रुतावतार कथा"
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मात्र है, आदि में
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