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लूणिग वसति के मूल चैत्य के नव चौकियों में दक्षिण की तरफ पत्थर में खुदा हुआ द्वासत्पति ( ७२ ) जिनपट्टक हैं, इस पट्टक की दाहिनी ओर एक पुरुष मूर्ति है जिस पर - 'सोनीवीधा' यह लेख है, पट्ट की बायीं तरफ स्त्री की मूर्ति पर 'संघवणि चंपाई' यह लेख हैं, यह पट्टक सं० १५६३ में बनवाया गया है, इसकी प्रतिष्ठा वृद्धतपागच्छीय श्री ज्ञानसागरसूरिजी ने की थी ।
नव चौकिये के अग्निकोण तरफ के आखिरी खम्भे पर एक लेख है, जिसमें संघवी श्री पेथड द्वारा इस चैत्य का जीर्णोद्धार कराना लिखा है वह लेख यह है---
"याचन्द्रार्क नंदतादेषः संघा-धीशः श्रीमान्पेथड : संघयुक्तः । जीर्णोद्धारं वस्तुपालस्य चैत्ये, तेते येनेहा दाद्री स्वसारैः ।।”
लूणिग वसति में दक्षिणाभिमुख देहरियों की जगती में एक अश्वावबोध तीर्थ का पट्टक लगा हुआ है जिसका वर्णन ऊपर दिया है और पिछली हस्तिशाला में दक्षिण तरफ के छोर पर एक भूमिगृह भी है ।
"उपदेश सार" आदि ग्रन्थों में लूणिग वसति की प्रतिष्ठा के अवसर पर जालोर का राजमन्त्री श्रीयशोवीर वहां आया हुआ था, मन्त्री वस्तुपाल तेजपाल ने यशोवीर को प्रार्थना की कि चैत्य में शिल्प सम्बन्धी कोई भूलें हों तो दिखाइयेगा, इस पर यशोवीर ने चैत्य का निरीक्षण करने के बाद शिल्प सम्बन्धी १४ भूलें दिखाई थीं, जिनमें छोटे २ सोपान, मन्दिर के पिछले भाग में अपने वंशजों की मूर्तियाँ, कसौटी पत्थर का प्रासाद का बाह्य द्वार आदि मुख्य थीं ।
हस्तिशाला चैत्य के पीछे कराने का परिणाम यशोवीर ने बताया था कि तुम्हारी वंश परम्परा आगे नहीं बढ़ेगी, कसौटी का द्वार बनाने के सम्बन्ध में यशोवीर ने कहा था कि इस काल में ऐसा कीमती द्वार यहां रहना मुश्किल है, अनार्य लोग उठा ले जायेंगे, यशोवीर द्वारा की गई मन्दिर की भूलों की भविष्यवाणियाँ बहुधा
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