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का दमन कर उसके नाक में नाथ लगाई है, नाग हाथ जोड़ माफी मांग रहा है, उसकी ७ नागिनियाँ भी हाथ जोड़ के प्रार्थना करती हैं, इन नागनागिनियों के अद्ध शरीर मनुष्य अगर देवाकृति में हैं
और पिछले शरीर सर्पाकार हैं, सबने एक दूसरे के साथ शरीर गुंथकर गोलवलय बनाया है, पश्चिम की ओर कृष्ण का शेषशयन है, दो स्त्रियां पास में हैं, इसके पीछे कृष्ण और चाणूरमल्ल का द्वद्व युद्ध दिखाया है।
६ रंगमण्डप के दक्षिण में जगती के बीच में ३ चौकियां हैं, पश्चिम चौकी में कृष्ण जन्म, मध्य चौकी में वसुदेवजी का राजगढ़ तथा कचहरी और पूर्व तरफ की तीसरी चौकी में गोकुल तथा गोपगोपियों के हूबहू चित्र और कृष्ण की चेष्टा तथा पराक्रम दिखाये हैं, ये चित्र बड़ी खूबी के साथ खोदे गये हैं।
उपर्युक्त चित्र विमलवसति में हैं, वैसे ही सजीवचित्र लूणिगवसति के प्रेक्षा मण्डप में और नव चौकियों में हैं, इनमें जो खुदाई हुई है वह भी उससे कम नहीं है, पर उनका विवरण देने के लिए यह स्थान उपयुक्त नहीं है।
विमलवसति की देवकुलिकाओं की प्रतिष्ठा विमलवसति में अधिकांश देहरियां सं० १२४५ में प्रतिष्ठित हुई मालूम होती हैं। इनमें से अनेक देहरियों पर पृथ्वीपाल पुत्र धनपाल का नाम खुदा हुआ मिलता है, इससे ज्ञात होता है कि मूलमन्दिर और आगे के मण्डप वगैरह बनकर सं० १०८८ में विमल के हाथ से प्रतिष्ठित हो गये थे, शेष कार्य बाद में उसके वंश वालों ने पूरा किया था।
सं० १०८८ के बाद इस मन्दिर में १२०१ और १२१२ में भी जिन बिम्बों की प्रतिष्ठ होने के लेख मिलते हैं।
मन्दिर की जगती में फिरते देहरी नं० १० पर खुदी हुई १७ पद्यों की एक प्रशस्ति है, यह प्रशस्ति सं० १२०१ में खुदी है, इस
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