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उपयुक्त समझकर ली और मन्दिर बनाकर सं० १०८८ के वर्ष में उस प्रासाद में आदिनाथ की पित्तलमयी बडी प्रतिमा प्रतिष्ठित की।'
ऊपर के वर्णन में चम्पक वृक्ष के समीप गोमुखयक्ष की मूर्ति प्रकट होने की जो बात कही है इससे भी सिद्ध होता है कि आबू ऊपर पहले भी आदिनाथ का मन्दिर बन चुका था और प्रतिष्ठा भी हो चुकी थी, अन्यथा वहां पर जमीन में से गौमुख यक्ष की मूर्ति नहीं निकलती।
उययुक्त "अबुर्द कल्पकार" ने अपने समय तक आबू पर जितने भी जैन मन्दिर बन चुके थे, उन सभी का वर्णन किया है, विमल निर्मापित आदिनाथ के मन्दिर का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, श्री नेमीनाथ के मन्दिर के सम्बन्ध में आप लिखते हैं:
"श्री नेमिमन्दिरमिदं वसुदन्ति* भानु (१२८८) वर्षे पोपलमयप्रतिमाभिरामम् । श्रीवस्तुपाल सचिवस्तनुते स्म यत्र, श्रीमानसो विजयतेऽव॒ दशैलराजः ॥१५॥
(१) आजकल विमलमन्त्री निर्मापित आदिजिन के मन्दिर में मूलनायक पापाणमय-प्रतिमा है इसका कारण है वि० सं० १३६६ में मुसलमानों की सेना ने आबू पर्वत की जिनप्रतिमाओं का नाश किया, उसी समय पित्तलमय मूर्ति को उठा ले गये थे। सं० १३७६ में जब इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ तब विद्यमान पाषाण मूर्तिप्रतिष्ठित की थी।
* “अबुर्द कल्प" के लेखक ने नेमिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा १२८८ में होना लिखा है, परन्तु वास्तव में मूल मन्दिर की प्रतिष्ठा १२८७ में हुई थी और अधिकांश देहरियों की प्रतिष्ठा १२८८ में और उसके बाद भिन्न-भिन्न वर्षों में हुई थी, अन्तिम दो गोखड़ों में १२६७ में प्रतिमाजी प्रतिष्ठित होने के लेख मिलते हैं।
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