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________________ ३०१ आग्रह किया करते और जहां अपना आग्रह सफल हो जाता वहीं विशेष स्थिरता करते, आज भी इनकी वही उत्सव प्रियता बनी हुई है । छुटकारा न मिलने से उनके निकट सौ पचास मनुष्यों का मेला और चहल पहल बनी रहती है और इससे योगीजी को बड़ा आनन्द रहता है, ये भले ही पहाड़ों में, जंगलों में रहें पर इनको निर्जनता से प्रेम नहीं, लोगों के कोलाहल, भक्तों के आरती गीत और स्त्रियों के गीतों गरबों के श्रवण में इनको खासा रस है । योगीराज की प्रतिष्ठा-प्रियता प्रतिष्ठाओं, अञ्जनशालाकाओं और जन और उनमें अगुआ बनने का तो योगीजी को मूर्तियों की आवश्यकता हो, चाहे न हो पर जहां में बिम्बप्रवेश का भी प्रसंग होगा, वहीं योगीजी के लेख तो मूर्तियों पर खोदे ही जायेंगे । यह प्रतिष्ठा प्रेम कई बार औचित्य का उल्लंघन कर चुका है और इसके परिणाम स्वरूप योगीजी ने अपने हितैषियों को भी शत्रु बनाया है । वेशभूषा सम्मेलनों को जुड़ाने नि:सीम ही प्रेम है, योगी श्री शांतिविजयजी के वेष में जैन और जैनेतर साधुओं के वेष का संमिश्रण है, रजोहरण ( ओघा), मुंहपत्ती, सफेद चादर चोलपट्टक वगैरह जैन श्रमण वेष के प्रतीक हैं, तब लंगोट, नित्य जलस्नान आदि बातें तीर्थान्तरीय साधुयों की वेशभूषा के द्योतक हैं । Jain Education International इनको प्रमुखता नाम से शिला आचार योगीजी का आचार भी अर्ध जैन है । आजकल वे बहुधा पाक्षिक प्रतिक्रमण में बैठते हैं और पारिपाश्विक साधु प्रतिक्रमण पढ़ाते हैं, भक्त मंडली भी उनके साथ बैठती है, पर नित्य प्रतिक्रमण न आप करते हैं न आपकी भक्त मंडली । इस बार हमारे सामने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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