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अन्तर पाया, हां, अवस्था में और ठाट में कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ था। १९८३ के शांति विजयजी प्रौढ़ दीखते थे, अब कुछ वृद्ध, तब इनके बाल काले कम बढ़े हुए थे और अब श्वेत डाढ़ी मूंछे काफी बढ़ी हुई थीं, तब ये जमीन पर सादे कम्बल के आसन पर बैठते थे और अब बिना पाये के पट्ट पर बिछी हुई गद्दी पर बैठते हैं, कुछ इंग्लिश वाक्य भी बोल दिया करते हैं और इस वक्त तो दो पांच टूटे फूटे संस्कृत वाक्य भी इनके मुख से सुने गये थे। यह सब होते हुए भी सामान्य रूप से यही कहना पड़ता है कि ये किसी भी भाषा के अच्छे जानकार नहीं हैं।
१९८३ में योगीराज के पास अनेक मनुष्य आते थे और आज भी आते हैं, पर उस समय कोई स्थायी नहीं रहता था, आज कुछेक मनुष्य स्थायी जमे रहते हैं, उस समय इनके पास साधु साध्वी कोई नहीं था, आज दो एक साधु और कुछ साध्वियां रहा करती हैं, योगिजी का यह चतुर्विध संघ प्रति प्रातःकाल इनकी वासक्षेप से नवांग पूजा करता है और शाम को आरती तथा भजन गाता है।
भक्त मण्डल का जमघट
दिन भर इनके पास या बाहर के भाग में इनकी भक्त मण्डली बैठी ही रहती है, प्रतिदिन जो नये तीर्थ यात्रिक आते हैं वे भी दर्शन तो कर जाते हैं परन्तु ठहरते कम हैं, जो खास इनके भाविक होते हैं या नये भाविक बनते हैं, वे ठहर जाते हैं और फिर वे योगिजी के हुकम बिना वहां से जाने नहीं पाते ।
हमने यह देखा कि वहां का वातावरण ही ऐसा बना दिया गया है कि इन पर विश्वास रखने वालों के दिल में बहत जल्दी यह बैठ जाता है कि गुरुदेव के हुकम बिना यहां से चले जाना मानो खतरा मोल लेना है । अक्सर वहां के स्थायी रहने वाले भक्त लोग नजीरियां दिया करते हैं कि "अमुक सेठ गुरुदेव के हुक्म बिना गया तो रास्ते में मोटर एक्सीडेंट होकर वह मर गया, अमुक
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