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२६६ जी और मिस् शार्प वगैरह सभा में उपस्थित थे।
इस यात्रा के समय हमारे आबू चढ़ने के बाद पन्द्रह दिनों में योगी श्री शान्तिविजयजी भी आबू ऊपर आ गए थे । वे हमें प्रतिदिन मिलते थे, उनका रवैया प्रत्येक व्यक्ति को अपना 'मित्र' बनाने का रहता था, हमारे और इनके आपस में ठीक पटती थी, पर इन्द्रसूरिजी के और इनके नहीं बनती थी, आज भी इनके पास आने वालों की भीड़ ठीक रहती है, पर पहले की और अब की इनकी वृत्तियों में विशेष अन्तर पड़ गया है।
सं० १९८३ की यात्रा में वसिष्ठाश्रम, ट्रेवरताल, अर्बुदादेवी और आबू की कुछ गुफायें देखी थीं, जहां स्वामी कैवल्यानन्द, अमरनाथ आदि विद्वान् सन्यासियों से मुलाकातें हुई थीं।
चौथी यात्रा
सं० १९८२ और १९८३ की यात्राओं में प्राकृतिक और कृत्रिम सौन्दर्य के अवलोकन से जो आनन्द मिला था, उसी के संस्मरणों ने वर्तमान वर्ष की यात्रा के लिए हमें प्रोत्साहित किया और सं० १८९८ के बैसाख सुदि १ को पाडीव से खास आबू के लिये प्रयाण किया और बैशाख सुदि ६ को हनादरे की नाल से आबू ऊपर चढ़े।
यद्यपि लोग इस रास्ते को सड़क कहते हैं पर मैंने इस मार्ग के लिए 'नाल' शब्द का प्रयोग किया है, जो सहेतुक है, बीसवीं सदी के प्रथम चरण तक जब कि अंग्रेज इस रास्ते से चढ़ते उतरते थे, यही सड़क होगी ऐसा वहां लगे हुए माइल के अंक सूचक पत्थरों से ज्ञात होता है । जब हम १६६५ में यहाँ से चढ़े थे तब तलहटी से २ फर्लाग ऊपर तक सड़क दिखती थी, पर बाद में वह भी गायब हो गई, इस समय सिवा माइलेज के पत्थरों के नीचे से ऊपर तक सड़क की कोई निशानी नहीं है, हाँ चढ़ाव पूरा होकर जहाँ समतल भूमि आती है और आबू के केम्प के रहने वाले टहलने
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