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________________ २६२ मौर्य चन्द्रगुप्त के शासन काल में भारत के पश्चिम तथा उत्तर प्रदेशों में घुसकर ये मनुष्यों को पकड़-पकड़ कर ले जाते और विदेशों में पहुंचाकर, गुलाम खरीददारों के हाथ बेच दिया करते थे, उपर्युक्त हमारा अनुमान ठीक हो तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि मथुरा का स्तूप मौर्य राज्यकाल का होना चाहिये । मथुरा का देव निर्मित स्तूप आज भी मथुरा के कंकाली टीला के रूप में भग्न अवस्था में खड़ा है । इसमें से मिली हुई कुषाण कालीन जैन-मूर्तियां, आयाग-पट जैनसाधुओं की मूर्तियां आदि ऐतिहासिक साधन आज भी मथुरा तथा लखनऊ के सरकारी संग्रहालयों में सुरक्षित हैं, उन पर राजा कनिष्ठ, हुविष्क, वासुदेव के राज्य काल के लेख भी उत्कीर्ण हैं, इससे ज्ञात होता है कि यह तीर्थ विक्रम की दूसरी शताब्दी तक उन्नत दशा में था । उत्तर भारत में विदेशियों के आक्रमण से खास कर श्वेतहूणों के समय में जैन श्रमण तथा जैन गृहस्थ सामूहिक रूप से दक्षिण भारत की तरफ राजस्थान, मेवाड़, मालवा आदि में चले गये और उत्तर भारत के अनेक जैन तीर्थ रक्षण के अभाव से वीरान हो गए थे, जिनमें मथुरा का देव निर्मित स्तूप भी एक है। (१०) सम्मेतशिखर (तीर्थ) सूत्रोक्त जैन तीर्थों में सम्मेत शिखर (पारसनाथ-हिल) का नाम भी परिगणित है, आवश्यक-नियुक्तिकार कहते हैं--ऋषभदेव वासुपूज्य, नेमिनाथ और वर्धमान (महावीर) इन चार तीर्थंकरों को छोड़, शेष इस अवसर्पिणी समा के बीस तीर्थङ्कर सम्मेत शिखर पर निर्वाण हुए थे, इस दशा में सम्मेतशिखर को तीर्थंकर की निर्वाण भूमि होने के कारण तीर्थ कहते हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी में निगम गच्छ के प्रादुर्भावक आचार्य इन्द्रनन्दी के बनाये हुए “निगमों' में एक निगम “सम्मेत शिखर" के वर्णन में लिखा गया है, जिसमें इस तीर्थ का बहुत ही अद्भुत वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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