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"थूभमह सढि-समणि, बोहियहरणं च निवसुधातावे । मग्गेण य अक्कंदे, कयंमि युद्धरेण मोएति ॥"
अर्थात्-'मथुरा के स्तूप महोत्सव पर जैन श्राविकाएं तथा जैन साध्वियां जा रही थीं, मार्ग में "बोधिक लोग उन्हें घेरकर अपने साथ ले चले, आगे जाते मार्ग के निकट आतापना करते हुए, एक राजपुत्र प्रवजित जैन-मुनि को देखा, उन्हें देखते ही यात्राथिनियों ने आक्रन्दन ( शोर ) किया, जिसे सुनकर मुनि उनकी तरफ आए और बोधिकों से युद्ध कर श्राविकाओं तथा साध्वियों को उनके पंजे से छुड़ाया।
उक्तगाथा की विशेष चूणि नीचे लिखे अनुसार है---- "महुराए नयरीए थूमो देवनिम्मिश्रो तम्स महिमानिमित्तं सट्ठी तो समणीहि समं निग्गयातो, रायपुत्तो तत्थ अदूरे आयातो चिट्टइ। ता सढडीसमणीतो बोहियेहिं गहियातो तेणंतेणंाणियातो ता ताहिं तं साहूँ दगुणं अक्कंदो को ततो रायपुगेण साहुणा युद्धं दाऊण भोइयातो । बोधिका अनार्यम्लेच्छाः" (नि.वि.चू.२६ =२)
अर्थात् —चूर्णिका भावार्थ गाथा के नीचे दिये हुए अर्थ में आ चुका है, इसलिये चूणि का अर्थ न लिखकर चूर्णिकार के अन्तिम शब्द 'बोधिक' शब्द पर ही थोड़ा ऊहापोह करेंगे।
जैन सूत्रों के भाष्यादि में 'बोहिय' यह शब्द बार-बार आया करता है, प्राचीन संस्कृत टीकाकार 'बोहिय' शब्द का संस्कृत 'बोधिक' शब्द बनाकर कहते हैं, 'बोधिक' पश्चिम दिशा के म्लेच्छों को कहते हैं । प्राकृत टीकाकार कहते हैं--मनुष्य का अपहरण करने वाले, म्लेच्छ 'बोहिय' कहलाते हैं, हमारा अनुमान है कि 'बोधिक' अथवा 'बोहिय' कहलाने वाले लोग 'बोहीमिया के रहने वाले विदेशी थे, वे यूनानियों के भारत पर के आक्रमण के समय भारत की पश्चिम सरहद पर इधर-उधर पहाड़ी प्रदेशों में फैल गए थे,
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