________________
२६०
पार्श्वनाथ की प्रस्तरमय मूर्ति प्रतिष्ठित करके पूजा किया करे, देवी की बात भविष्य में लाभदायक जानकार संघ ने देवी ने विचारित योजनानुसार मूल स्तूप को ढाँप दिया ।
मान्य की और ईंटों के स्तूप से
वीर निर्वाण की चौदहवीं शताब्दी में आचार्य बप्पभट्टि हुए, उन्होंने भी इस तीर्थ का उद्धार करवाया, पार्श्वनाथ की पूजा करवाई, नित्य पूजा होती रहे इसके लिए व्यवस्था करवाई ।
इष्टकामय स्तूप पुराना हो जाने से उसमें से इंटें निकलने लगी थीं, इसलिए संघ ने पुराने स्तूप को हटाकर नया पाषाणमय स्तूप बनवाने का निर्णय किया, परन्तु कुबेराने स्वप्न में कहा - इष्टकामय स्तूप को अपने स्थान से न हटाइये, इसको मजबूत करना हो तो ऊपर पत्थर का खोल चढ़वा दो, संघ ने वैसा ही किया, आज भी देवनिर्मितस्तूप को अदृश्य रूप से देव पूजते हैं, तथा इसकी रक्षा करते हैं, हजारों प्रतिमाओं से युक्त देवलों, रहने के स्थानों, सुन्दर गन्ध कुटियों तथा चेलनिका, अंबा, अनेक क्षेत्रपाल आदि के निवासों से यह स्तूप सुशोभित है ।
'पूर्वोक्त बप्पभट्टिसूरि ने जो कि ग्वालियर के राजा आम के धर्मगुरु थे, मथुरा में वि० सं० ८२६ में भगवान् महावीर का बिम्ब प्रतिष्ठित किया ।'
मथुरा के देवनिर्मित स्तूप की उत्पत्ति का निरूपण शास्त्रीय प्रतीकों तथा मथुराकल्प के आधार से ऊपर दिया गया है, कल्पोक्त वर्णन अतिशयोक्ति पूर्ण हो सकता है, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि यह स्तूप है अति प्राचीन और भारत में विदेशियों के आने के समय यह स्तूप जैनों का एक महिमास्पद तीर्थ बना हुआ था । वर्ष के अमुकसमय में यहां स्नानमहोत्सव होता और उस प्रसंग पर भारतवर्ष के कोने-कोने से तीर्थ यात्रिक यहाँ एकत्र होते थे, ऐसा प्राचीन जैन साहित्य के उल्लेखों से सिद्ध होता है । इस बात के समर्थन में निशीथ भाषा की एक गाथा तथा उसकी चूर्णिका उद्धरण नीचे देते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org