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२८६ मण्डलियों के साथ चित्रित चित्रपटों की पूजा करके सब धार्मिक सम्प्रदाय वाले उनकी भक्ति करने लगे। अपने-अपने पट सामने रखकर, भक्तजन अपने अपने ध्येय देव के गुण गान कर रहे थे। नवम दिन की रात्रि का समय था, बराबर अर्धरात्रि व्यतीत हुई, तब प्रचण्ड पवन प्रारम्भ हुआ, पवन से तृण रेती उड़े इसमें तो बड़ी बात नहीं थी, परन्तु उसकी प्रचण्डता यहां तक बढ़ चली, कि उसमें पत्थर-कंकर तक उड़ने लगे, तब लोगों का धैर्य टूटा, वे प्राण बचाने की चिन्ता से वहां से भागे, लोगों ने अपने अपने सामने जो देव पूजा पट्ट रखे थे, वे लगभग सब के सब प्रचण्ड पवन में विलीन हो गये, केवल सुपार्श्वनाथ का एक पट्ट वहाँ रह गया, हवा का बवण्डर शान्त हुना, लोग फिर एकत्रित हुए और सुपार्श्वनाथ का पट्ट देखकर बोले, यह अरिहन्त देव हैं और यह स्तूप भी इसी देव की मूर्तियों से अलंकृत है, लोग उस पट्ट को लेकर सारे मथुरा नगर में घूमे, और तब से 'पट्ट यात्रा' प्रवृत्त हुई ।
इस प्रकार धर्मघोष तथा धर्मरुचि मुनि मेरुपर्वताकार देव निर्मित स्तूप में देववन्दन कर नया तीर्थ प्रकाश में लाकर, जैन संघ को आनन्दित कर मथुरा से विहार कर गए, और क्रमशः कर्म क्षय कर संसार से मुक्त हुए।
'कुबेरादेवी स्तूप की तब तक रक्षा करती रही, जब कि पार्श्वनाथ का शासन प्रचलित हुआ।'
'एक समय भगवान् पार्श्वनाथ विहार क्रम से मथुरा पधारे और धर्मोपदेश करते हुए भावि दुष्षमा काल के भावों का निरूपण किया, पार्श्वनाथ के वहां से विहार करने के बाद कुबेरा ने संघ को बुलाकर कहा-भविष्य में समय कनिष्ठ आने वाला है, कालानुभाव से राजादि शासक लोभग्रस्त बनेंगे, और इस सुवर्णमय स्तूप को नुकसान पहुंचायेंगे, अतः स्तूप भीतर को इंटों के परदे से ढ़ांक दिया जाय, भीतर की मूर्तियों की पूजा में अथवा मेरे बाद जो नयी कुबेरा उत्पन्न होगी वह करेगी, संघ इष्टकामय स्तूप में भगवान्
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