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धर्म कार्य का आदेश फरमाइये, क्योंकि देव दर्शन अमोघ होता है । साधुओं ने कहा मथुरा के जैन संघ के साथ हमें मेरु पर्वत पर लेजा, देवी ने कहा- आप दो को मैं वहाँ ले जा सकती हूँ, मथुरा का संघ साथ में होगा तो मुझे भय है कि मिथ्यादृष्टि देव मेरे गमन में विघ्न करेंगे । साधु बोले- यदि संघ को वहाँ लेजाने की तेरी शक्ति नहीं है, तो हम दोनों को वहां जाना उचित नहीं है, हम शास्त्र बल से ही मेरुस्थित जिन चैत्यों का दर्शन वन्दन कर लेंगे । तपस्वियों के इस कथन को सुनकर, लज्जित सी हो कुबेरा बोली, - भगवन् यदि ऐसा है तो मैं स्वयं जिन प्रतिमाओं से शोभित मेरु पर्वत का आकार यहां बना देती हूं । वहाँ पर संघ के साथ आप देव वन्दन कर लें, साधुओं ने देवी की बात को स्वीकार किया, तब देवी ने सुवर्णमय नाना रत्न शोभित अनेक देव परिवारित, तोरण ध्वज मालाओं से अलंकृत, जिसका शिखर छत्र त्रय से सुशोभित है ऐसा रात भर में स्तूप निर्माण किया, जो मेरु पर्वत की तरह तीन मेखलाओं से सुशोभित था । प्रत्येक मेखला में प्रति दिक् सम्मुख पंचवर्ण रत्नमय प्रतिमाएँ सुशोभित थीं, मूल नायक के स्थान पर भगवान सुपार्श्वनाथ का बिंब प्रतिष्ठित था ।
प्रभात होते ही लोग स्तूप के पास एकत्र हुए और आपस में विवाद करने लगे, कोई कहता था - वासुकि नाग के लंछन वाला स्वयंम्भू देव है, तब दूसरे कहते थे - शेषशायी भगवान् नारायण है, इसी प्रकार कोई ब्रह्मा, कोई धरणेन्द्र ( नागराज ), कोई सूर्य, तो कोई चन्द्रमा कहकर अपनी जानकारी बता रहे थे । बौद्ध कहते थे - यह स्तूप नहीं, किन्तु 'बुद्धाण्डक' है, इस विवाद को सुन कर मध्यस्थ पुरुष कहते थे - यह दिव्य शक्ति से बना है और दिव्य शक्ति से ही इसका निर्णय होगा, तुम आपस में क्यों लड़ते हो, अपने अपने इष्ट देव को वस्त्र पट पर चित्रित करवा कर निज निज मण्डली के साथ ठहरो, जिसका स्तूप स्थित देव होगा, उसी का चित्रपट रहेगा, शेष व्यक्तियों के पट्ट स्थित देव भाग जायेंगे । जैन संघ ने भी सुपार्श्वनाथ का चित्रपट बनवाया, बाद में अपनी अपनी
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