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मथुरा स्थित देव निर्मित स्तूप की उत्पत्ति का उक्त इतिहास हमनें सूत्रों के भाष्यों, चूर्णियों और टीकाओं के भिन्न-भिन्न वर्णनों को व्यवस्थित करके लिखा है, आचार्य जिनप्रभ सूरि कृत मथुरा कल्प में पौराणिक ढंग से इस स्तूप का विशेष वर्णन दिया है, जिसका संक्षिप्त सार पाठकगण के अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है ।
श्री सुपार्श्वनाथ जिनके तीर्थवर्ती धर्मघोष और धर्मरुचि नामक दो तपस्वी मुनि एक समय विहार करते हुए मथुरा पहुंचे, उस समय मथुरा की लंबाई बारह योजन तथा विस्तार नव योजन परिमित था, उसके चारों तरफ दुर्ग बना हुआ था और पास में दुर्ग को नहलाती हुई यमुना नदी बह रही थी, मथुरा के भीतर तथा बाहर अनेक कूप बावड़ियां बनी हुई थीं, नगरी गृहपंक्तियों, हाटबाजारों और देव मन्दिरों से सुशोभित थी, इसका बाह्य भूमि भाग अनेक वनों, उद्यानों से घिरा हुआ था । तपस्वी धर्मघोष, धर्मरुचि मुनियुगल ने मथुरा के "भूतरमण" नामक उद्यान में चातुर्मासिक तप के साथ वर्षा चातुर्मास्य की स्थिरता की, मुनियों के तप, ध्यान, शान्ति आदि गुणों से आकर्षित होकर उपवन की अधिष्ठात्री "कुबेरा" नामक देवी उनके पास रात्रि के समय जाकर कहने लगी- मैं आपके गुणों से बहुत ही संतुष्ट हूँ, मुझसे वरदान मांगिये, मुनियों ने कहा हम निःसंग श्रमण हैं, हमें किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं यह कहकर उन्होंने 'कुबेरा' को धर्म का उपदेश देकर जैन धर्म की श्रद्धा कराई ।
चातुर्मास्य की समाप्ति के लगभग कार्तिक सुदि अष्टमी को तपस्वियों ने अपने निवासस्थान की स्वामिनी जानकर कुबेरा को कहा -श्राविके ! चातुर्मास्य पूरा होने आया है, हम यहाँ से चातुर्मास्य की समाप्ति होते ही विहार करेंगे, तुम जिन देव की पूजा भक्ति तथा जैन धर्म की उन्नति में सहयोग देते रहना, देवी ने तपस्त्रियों को वहीं ठहरने की प्रार्थना की, परन्तु साधुओं का एक स्थान पर रहना, आचार विरुद्ध बता कर उसकी प्रार्थना को अस्वीकृत कर दिया । कुबेरा ने कहा - यदि आपका यही निश्चय है, तो मेरे योग्य
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