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________________ २८३ में ५०, पंचम आरे में १२ योजन का होगा तब षष्ठ आरे में केवल ७ हाथ का ही रहेगा ।" जैन आगमों का ही नहीं भूगर्भ वेत्ताओं का भी यह सिद्धान्त है कि पर्वत भूमि का हि एक भाग है । भूमि की ही तरह पर्वत भी धीरे-धीरे ऊपर उठता है । लाखों और करोडों वर्षों के बाद वह अपने प्रारंभिक रूप से बहुत बड़ा हो जाता है । तब हमारे इन शत्रुंजय माहात्म्यकारों की गंगा उल्टी बहती मालूम होती है, इसलिए इस पर्वत के प्रारम्भ में अस्सी योजन का होकर अंत में बहुत छोटा होने का भविष्य कथन करते हैं । इसीसे इन कल्पों की कल्पितता बताने के लिए लिखना बेकार होगा, वास्तव में पीतल अपने स्वरूप से ही पीतल होता है, युक्ति प्रयोगों से वह सोना सिद्ध नहीं हो सकता । हमारे प्राचीन साहित्य सूत्रादि में इसका विशेष विवरण भी नहीं मिलता ज्ञाता धर्म कथांग के सोलहवें अध्ययन में पांच पाण्डवों के शत्रुंजय पर्वत पर अनशन कर निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है इसके अतिरिक्त अंतकृद्दशाङ्ग सूत्र में भगवान् नेमिनाथजी के अनेकों साधुओं के शत्रुंजय पर्वत पर तपस्या द्वारा मुक्ति पाने का वर्णन मिलता है, इससे इतना तो सिद्ध है कि शत्रुंजय पर्वत हजारों वर्षों से जैनों का सिद्ध क्षेत्र बना हुआ है, यह स्थान भगवान् ऋषभदेव का विहार स्थल न मानकर, नेमिनाथ का तथा उनके श्रमणों का विहार स्थल मानना विशेष उपयुक्त होगा । 1 आवश्यक निर्युक्ति भाष्य, चूर्णि आदि से यह प्रमाणित होता है। कि भगवान् ऋषभदेव उत्तर पूर्व और पश्चिम भारत के देशों में ही विचरे थे, दक्षिण भारत में अथवा सौराष्ट्र भूमि में वे कभी नहीं पधारे । जैन शास्त्रोक्त भारतवर्ष के नक्शे के अनुसार आज का सौराष्ट्र देश ऋषभदेव के समय में जल मग्न होगा अथवा तो एक अन्तरीप होगा, इसके विपरीत नेमिनाथ के समय में यह सौराष्ट्र भूमि समुद्र के बीच होते हुए भी मनुष्यों के बसने योग्य हो चुकी थी, इसी कारण से जरासन्ध के आतंक से बचने के लिए यादवों ने इस प्रदेश का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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