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प्रार्थना से विक्रम संवत् ७७७ (सात सौ सतहत्तर) में यह शत्रुञ्जयमाहात्म्य मैंने बनाया है। वे स्वयं अपने आप को 'राजगच्छ' का मण्डन बताते हैं। शत्रुजय तीर्थ के संस्कृत कल्प-लेखक श्री जिनप्रभसूरिजी विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान् हैं, इसमें तो कोई शंका नहीं। इन्होंने वि० सं० १३८५ में यह कल्प लिखा है। इस कल्प की और शत्रुजय-माहात्म्य की मौलिक बातें एक दूसरे का आदान-प्रदान रूप मालूम होती हैं, परन्तु धनेश्वरसूरिजी का अस्तित्व अष्टमी शताब्दी में होने का उनकी यह कृति ही अपवाद करती है । इस माहात्म्य में शीलादित्य का तो क्या चौदहवीं शदी के जीर्णोद्धारक समरसिंह तक का नाम लिखा मिलता है। इस स्थिति में इस ग्रन्थ को शीलादित्य कालीन धनेश्वरसूरि कृत मानना युक्ति संगत नहीं है । हमने पाटन गुजरात के एक प्राचीन ग्रन्थ भण्डागार में एक ताडपत्रों पर लिखी हुई प्राचीन ग्रन्थ सूची देखी थी जिसमें विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक में बने हुए सैंकड़ों जैन जैनेतर ग्रन्थों के नाम मिलते हैं परन्तु उसमें 'शत्रुजय माहात्म्य' का तथा 'शत्रुञ्जय कल्प' का नामोल्लेख नहीं है। बृहट्टिप्पणिका नामक भारतीय जैन ग्रन्थों की एक बड़ी सूची जो सोलहवीं शताब्दी में किसी विद्वान् जैन श्रमण ने लिखी है, उसमें शत्रुजय माहात्म्य का नाम अवश्य मिलता है, परन्तु टिप्पणि-लेखक ने इस ग्रन्थ के नाम के आगे “कूट ग्रन्थ" ऐसा अपना अभिप्राय भी व्यक्त कर दिया है। अष्टम शताब्दी से लगाकर चौदहवीं शताब्दी तक के किसी भी ग्रंथ में “शत्रुञ्जय माहात्म्य' ग्रंथ अथवा इसके कर्ता धनेश्वर सूरि का नामोल्लेख नहीं मिलता। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमें यही कहना पड़ता है कि “शत्रुजय माहात्म्य' एक अर्वाचीन ग्रंथ है और इसमें लिखी हुई अधिकांश बातें अनागमिक हैं।
दृष्टान्त के रूप में हम एक ही बात का उल्लेख करेंगे । माहात्म्य ग्रन्थों में लिखा है कि "शत्रुजय पर्वत" का विस्तार प्रथम आरे में ८०, द्वितीय आरे में ७०, तृतीय आरे में ६०, चतुर्थ आरे
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