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२८१ की छाप सदा के लिए रह गई और घटनास्थल पर एक स्मारक बनवा कर, शरणागत वत्सल भगवान् महावीर की मूर्ति प्रतिष्ठित की। उस प्रदेश के श्रद्धालू लोग उसे बड़ी श्रद्धा से पूजते, तथा कार्यार्थी यत्रिगण सार्थवाह आदि अपनी यात्रा की निर्विघ्नता के लिए भगवान् की शरण लेकर आगे बढ़ते थे। यही भगवान् महावीर का स्मारक मंदिर आगे जाकर जैनों का "चमरोत्पात"* नामक तीर्थ बन गया जिसका श्रुत केवली भद्रबाहु स्वामि ने आचाराङ्ग नियुक्ति में स्मरण-वन्दन किया है ।
चमरोत्पात तीर्थ आज हमारे विच्छिन्न (भूले हुए) तीर्थों में से एक है। यह स्थान आधुनिक मिर्जापुर जिले के एक पहाड़ी प्रदेश में था, ऐसा हमारा अनुमान है।।
___८, शत्रुञ्जय-पर्वतशत्रुञ्जय आज हमारा सर्वोत्तम तीर्थ माना जाता है। इसका माहात्म्य गाने में शत्रुञ्जय माहात्म्यकार ने कोई उठा नहीं रखा । यह पर्वत भगवान् ऋषभदेव का मुख्य विहार क्षेत्र और भरत चक्रवर्ती का सुवर्णमय चैत्य निर्माण का स्थान माना गया है।
कुछ संस्कृत और प्राकृत कल्पकारों ने भी शत्रुञ्जय के संबंध में दिल खोल कर महिमा गान किया है।
शत्रुञ्जय तीर्थ के गुण गान करने वालों में मुख्यतया श्री धनेश्वरसूरि तथा श्री जिनप्रभसूरि का नाम लिया जा सकता है। धनेश्वरसरिजी ने तो माहात्म्य के उपक्रम में ही अपना परिचय दे डाला है, वे कहते हैं—'वल्लभी नगरी के राजा शीलादित्य की
चमरेन्द्र के शक्रेन्द्र पर चढ़ाई करने के विषय पर भगवती सूत्र में विस्तृत वर्णन मिलता है, परन्तु उसमें चमरोत्पात के स्थल पर स्मारक बनने और तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध होने की सूचना नहीं है। मालूम होता है, भगवान् महावीर के प्रवचन के व्यवस्थित होने के समय तक वह स्थान जैन तीर्थ के रूप में प्रसि हीं हुआ था ।
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