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आश्रय लिया था, तथा इन्द्र के आदेश से उनके लिए कुबेर ने यहां द्वारिका नगरी का निवेश किया था, भगवान नेमिनाथ ने इसी द्वारिका के बाहर रैवतक पर्वत के समीप प्रव्रज्या ली थी और बहुधा इसी प्रदेश में विचरे थे, इस वास्तविक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए, सौराष्ट्र प्रदेश तथा उज्जयन्त (गिरनार) और शत्रुजय पर्वत भगवान् नेमिनाथ के विहार क्षेत्र मानेंगे तो, हम वास्तविकता के अधिक समीप रहेंगे।
६. मथुरा का देव निर्मित स्तूपमथुरा के देव निर्मित स्तूप का यद्यपि मूल आगमों में उल्लेख नहीं मिलता तथापि छेद सूत्रों के भाष्य चूणि आदि में इसके उल्लेख मिलते हैं, इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है कि
'मथुरा नगरी के बाहर वन में एक क्षपक (तपस्वी जैन साधु) तपस्या कर रहा था, उसकी तपस्या और संतोषवृत्ति से वहाँ की वन-देवता तपस्वी साधु की तरफ भक्ति विनम्र हो गई थी, प्रतिदिन वह साधु को वन्दना करती और कहती“मेरे योग्य कार्य-सेवा फरमाना," क्षपक कहता "मुझे तुम जैसी अविरत देवी से कुछ कार्य नहीं।" देवी जब भी क्षपक को कार्य सेवा के लिए उक्त वाक्य दोहराती, क्षपक भी अपनी तरफ से वही उत्तर दिया करता था, एक समय देवी के मन में आया, तपस्वी बार-बार मुझे कोई कार्य न होने का कहा करते हैं तो अब ऐसा कोई उपाय करूँ ताकि ये मेरी सहायता पाने के इच्छुक बनें । उसने मथुरा के निकट एक बड़े विशाल चौक में रात भर में एक बड़ा स्तूप खड़ा कर दिया दूसरे दिन उस स्तूप को जैन तथा बौद्ध धर्म के अनुयायी अपनाअपना मान कर उसका कब्जा करने के लिए तत्पर हुए। जैन स्तूप को अपना बताते थे, तब बौद्ध अपना, स्तूप में लेख अथवा किसी संप्रदाय की देवमूर्ति न होने के कारण, उसने जैन बौद्धों के बीच झगड़ा खड़ा कर दिया, परिणाम स्वरूप दोनों संप्रदायों के नेता न्याय के लिए राजा के पास पहुंचे और स्तूप का कब्जा दिलाने
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