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यहां उत्तरा नामक एक निर्मल जल से भरी बावड़ी है जिसके जल में नहाने तथा उसकी मिट्टी के लेप करने से कोढियों के कोढ रोग शान्त हो जाते हैं।
यहां रहे हुए धन्वन्तरी नामक कुए की पीली मिट्टी से आम्नायवेदियों के आदेशानुसार प्रयोग करने से सोना बनता है। ___यहां के ब्रह्मकुण्ड के किनारे मण्डूक पर्णी ब्राह्मी के पत्तों का चूर्ण एक वर्णी गाय के दूध के साथ सेवन करने से मनुष्य की बुद्धि और नीरोगता बढ़ती है और उसका स्वर गन्धर्व का सा मधुर बन जाता है।
बहुधा अहिच्छत्रा के उपवनों में सभी वृक्षों पर बन्दाक उगे हुए मिलते हैं । जो अमुक-अमुक कार्य साधक होते हैं। यही नहीं यहां के उपवनों में जयंती, नागदमनी, सहदेवी, अपराजिता, लक्ष्मणा, त्रिपर्णी, नकुली, सकुली, सर्पाक्षी, सुवर्णशिला, मोहनी, श्यामा, रविभक्ता (सूर्यमुखी), निविषी, मयूर-शिखा, शल्या, विशल्यादि अनेक महौषधियां यहां मिला करती हैं।
अहिच्छत्रा में विष्णु, शिव, ब्रह्मा, चण्डिकादि के मन्दिर तथा ब्रह्मकुण्ड आदि अनेक लौकिक तीर्थ स्थान भी बने हुए हैं। यह नगरी सुगृहीत नामधेय "कण्व ऋषि" की जन्मभूमि मानी जाती है ।
उपर्युक्त अहिच्छत्रा तीर्थ स्थान वर्तमान में कुरुदेश के किसी भूमि भाग में खण्डहरों के रूप में भी विद्यमान है या नहीं इसका विद्वानों को पता लगाना चाहिए ।
६. स्थावर्त (पर्वत) तीर्थप्राचीन जैन तीर्थों में रथावर्त पर्वत को नियुक्तिकार ने षष्ठ नम्बर में रखा है। यह पर्वत आचारांग के टीकाकार आचार्य शीलाङ्क सूरि के कथनानुसार अन्तिम दश पूर्वधर आर्य वज्रस्वामी के स्वर्गवास का स्थान था। पिछले कतिपय लेखकों का मन्तव्य है कि
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