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________________ २७७ बनवा कर उसमें पार्श्वनाथ की नागफणछत्रालंकृत प्रतिमा प्रतिष्ठित की। जिस नगरी के समीप उपर्युक्त घटना घटी थी वह नगरी भी "अहिच्छत्रा नगरी” इस नाम से प्रसिद्ध हो गई। अहिच्छत्रा विषयक विशेष वर्णन सूत्रों में उपलब्ध नहीं होता परन्तु जिनप्रभसूरि ने “अहिच्छत्रानगरी कल्प'' में इस तीर्थ के सम्बन्ध में कुछ विशेष बातें कही हैं जिनमें से कुछ नीचे दी जाती हैं___ 'अहिच्छत्रा पार्श्वजिन चैत्य के पूर्व दिशा भाग में सात मधुर जल से भरे कुण्ड अब भी विद्यमान हैं। उन कुण्डों के जल में स्नान करने वाली मृतवत्सा स्त्रियों की प्रजा स्थिर रहती है। उन कुण्डों की मिट्टी से धातुवादी लोग सुवर्ण सिद्धि होना बताते यहां एक सिद्धरस कूपिका भी दृष्टिगोचर होती है जिसका मुख पाषाण शिला से ढका हुआ है । इस मुख को खोलने के लिए एक म्लेच्छ राजा ने बहुत कोशिश की, यहां तक कि रखी हुई शिला पर बहुत तीव्र आग जला कर उसे तोड़ना चाहा परन्तु वह अपने सभी प्रयत्नों में निष्फल हुअा। पार्श्वनाथ की यात्रा करने आये हुए यात्री-गण अब भी जब भगवान का स्नपन महोत्सव करते हैं, उस समय कमठ दैत्य प्रचण्ड पवन बादलों द्वारा यहां पर दुर्दिन कर देता है। मूलचैत्य से थोड़ी दूरी पर सिद्धक्षेत्र में धरणेन्द्र-पद्मावती सेवित पार्श्वनाथ का मन्दिर बना हुआ है। नगर के दुर्ग के समीप नेमिनाथ की मूर्ति से सुशोभित सिद्धबुद्ध नामक दो बालक रूपकों से समन्वित, हाथ में पाम्रफलों की डाली लिए सिंह पर आरूढ अंबा देवी की मूर्ति प्रतिष्ठित है । जीवित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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