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"यहां पर पूर्वकाल में बौधिसत्व चन्द्रप्रभ ने अपना मांस प्रदान किया था, जिसके उपलक्ष्य में मौर्य सम्राट अशोक ने उसका यह स्मारक बनवाया है।"
उक्त चीनी यात्री के उल्लेख से यह तो निश्चित हो जाता है कि धर्मचक्र विक्रमीय छठी शदी के पहले ही जैनों के हाथ से चला गया था। निश्चित रूप से तो कहा नहीं जा सकता, फिर भी यह कहना अनुचित न होगा कि शशेनियन लोग जो ईसा की तीसरी शताब्दी में आक्रामक बनकर तक्षशिला के मार्ग से भारत में आए थे, उसके लगभग काल में ही धर्मचक्र बौद्धों का स्मारक बन चुका होगा।
५. अहिच्छत्रा-पार्श्वनाथ आचारांग नियुक्ति सूचित पार्श्व-अहिच्छत्रा नगरी स्थित पार्श्वनाथ हैं । भगवान् पाश्र्वनाथ प्रवजित होकर तपस्या करते हुए एक समय कुरुजांगल देश में पधारे। वहां संखावती नगरी के समीपवर्ती एक निर्जन स्थान में आप ध्यान निमग्न खड़े थे, तब उनके पूर्वभव के विरोधी कमठ नामक असुर ने आकाश से घनघोर जल बरसाना शुरू किया। बड़े जोरों की वृष्टि हो रही थी। कमठ की इच्छा यह थी कि पार्श्वनाथ को जलमग्न करके इनका ध्यान भंग किया जाय । ठीक उसी समय धरणेन्द्र नागराज भगवान् को वंदन करने आया, उसने भगवान पर मुसलधार वृष्टि होती देखी, धरणेन्द्र ने भगवान् के ऊपर फणछत्र किया और इस अकाल वृष्टि करने वाले कमठ का पता लगाया। यहीं नहीं, उसे ऐसे जोरों से धमकाया कि तुरन्त उसने अपने दुष्कृत्य को बंद किया और भगवान् पार्श्वनाथ के चरणों में शीश नवांकर धरणेन्द्र से माफ़ी मांगी। जलोपद्रव के शान्त हो जाने के बाद नागराज धरणेन्द्र ने अपनी दिव्य शक्ति के प्रदर्शन द्वारा भगवान् की बहुत महिमा की उस स्थान पर कालान्तर में भक्त लोगों ने एक बड़ा जिन प्रासाद
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