________________
२७५
कहलाता है । उक्त महानिशीथ के प्रमाण से मेले के प्रसंग पर तीर्थ पर साधु के लिए जानी वजित किया ही है, परन्तु निशीथ आदि आगमों के प्रमाणों से केवल तीर्थदर्शनार्थ भ्रमण करना भी जैन श्रमण के लिए निषिद्ध बताया है। जैन श्रमण के लिए सकारण देश भ्रमण करना विहित है और उस भ्रमण में आने वाली तीर्थ भूमियों का दर्शन-वन्दन करना आगम विहित है। तीर्थ वन्दन के नाम से भड़कने वाले तथा केवल तीर्थ वन्दन के लिए भटकने वाले हमारे वर्तमानकालीन जैन श्रमणों को इन शास्त्रीय वर्णनों से बोध लेना चाहिए।
तक्षशिला का धर्मचक्र बहुत काल पहिले से ही जैनों के हाथ से चला गया था, इसके दो कारण थे--१. विक्रम की दूसरी तथा तीसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार हो चुका था, यही नहीं, तक्षशिला-विश्वविद्यालय में हजारों बौद्ध भिक्षु तथा उनके अनुयायी छात्रगण विद्याध्ययन करते थे । इस कारण तक्षशिला के तथा पुरुषपुर (पेशावर) के प्रदेशों में हजारों की संख्या में बौद्धउपदेशक घूम रहे थे। इसके अतिरिक्त २--शशेनियन लोगों के भारत पर होने वाले आक्रमण की जैन संघ को आक्रमण के पहिले ही सूचना मिल चुकी थी, कि आज से तीसरे वर्ष में तक्षशिला का भंग होने वाला है, इससे जैन संघ धीरे धीरे तक्षशिला से पंजाब की तरफ आगया था। कुछ लोग दक्षिण की तरफ पहुंच कर जल मार्ग से कच्छ तथा सौराष्ट्र तक चले गए। जाने वाले अपनी धन संपत्ति को ही नहीं, अपनी पूज्य देव मूत्तियों तक को वहां से हटा ले गए थे। इस दशा में अरक्षित जैन स्मारकों तथा मन्दिरों पर बौद्ध धर्मियों ने अपना अधिकार कर लिया था। तक्षशिला का धर्मचक्र जो चन्द्रप्रभ का तीर्थ माना जाता था, उसको भी बौद्धों ने अपना लिया और उसे बौधिसत्व चन्द्रप्रभ का प्राचीन स्मारक होना उद्घोषित किया । बौद्ध चीनी यात्री हनसांग जो कि विक्रम की षष्ठी शताब्दी में भारत में आया था, अपने भारत-यात्रा विवरण में लिखता है--
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org