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________________ २७४ चंद हसामियं वंदिया धम्मचक्कं गंतूणमागच्छामो, ताहे गोयमा दीमा अणुत्ता लंगंभीर महुराए भारतीए भणियं तेणायरियेणं, जहा इच्छायारेणं न कप्यइ तित्थयचं गंतु सुविहियाणं, ता जाव णं बोलेड़ जत्तं ताव णं अहं तुम्हे चंदप्पहं वंदावेहामि । अन्नं च जताए गएहिं असंजमें पडिज्जह, एएणं कारणेणं तित्थयत्ता पडिसेहिज्जइ । " अर्थात् - भगवान महावीर कहते हैं, हे गौतम ! अन्य समय वे साधु उस आचार्य को कहते हैं, हे भगवन् ! यदि आप आज्ञा करें तो हम तीर्थ यात्रा करने तथा चन्द्रप्रभ स्वामि को वंदन करने धर्मचक्र जाकर आजायें, तब हे गौतम ! उस आचार्य ने दृढ़ता से सोच कर गंभीरवाणि से कहा - ' इच्छाकार से सुविहित साधुओं को तीर्थयात्रा को जाना नहीं कल्पता, इसलिए जब यात्रा बीत जायेगी तब मैं तुम्हें चन्द्रप्रभ का वंदन करा दूंगा । दूसरा कारण यह भी है कि तीर्थ यात्राओं के प्रसंगों पर साधुओं को तीर्थों पर जाने से असंयम मार्ग में पड़ना पडता है । इसी कारण से साधुओं के लिए यात्रा निषिद्ध की गई है । महानिशीथ में ही नहीं, अन्य सूत्रों में भी जैन श्रमणों को तीर्थ यात्रा के लिए भ्रमण करना वर्जित किया है, निशीथ सूत्र की चूर्णि में लिखा है "उत्तरावहे धम्मचक्के, मधुराएं देवणिम्मिश्र धूभो । कोसलाए वा जियंतपडिमा तित्थकरण वा जम्मभूमीओ एवमादि कारणेहिं गच्छन्तो विकारणितो ( २४३-२ नि. चू.) । अर्थात् - उत्तरापथ में धर्मचक्र, मथुरा में देव निर्मित स्तूप, अयोध्या में जीवंतस्वामि प्रतिमा, अथवा तीर्थंकरों की जन्मभूमियां इत्यादि कारणों से देश भ्रमण करने वाले साधु का विहार निष्कारणिक * यहां यात्रा शब्द तीर्थ पर होने वाले मेले के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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