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________________ २७३ फग्गुणबहुले एक्कारसीइ, अह अट्टमेण भरेणं । उप्पण्णंमि अणंते, महन्वया पंच पएणवए ॥३४०॥" अर्थात्-'बहली (बल्ख-बाख्तरिया) अडंबइल्ला (अटक-प्रदेश) यवन (यूनान) देश और सुवर्णभूमि इन देशों में भगवान् ऋषभ ने तपस्वी जीवन में भ्रमण किया । बल्ख यवन, पल्हव देशवासी भगवान् के अनुशासन से क्रौर्य का त्याग कर भद्र परिणामी बने । तीर्थंकरों में आदि तीर्थंकर ऋषभ मुनि सर्वत्र निरुपसर्गता से विचरे। आदि जिन की अग्रविहार भूमि अष्टापद तीर्थ बना रहा, अर्थात् पूर्व-पश्चिमी भारत के देशों में घूमकर, मध्य-उत्तर भारत में आते तब बहुधा अष्टापद पर्वत पर ही ठहरते । भगवान् ऋषभ जिनका छद्मस्थ पर्याय (तपस्वी जीवन) हज़ार वर्ष तक बना रहा । बाद में आपको पुरिमताल नगर के बाहर वटवृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए केवल ज्ञान प्रकट हुआ। उस समय आपने निर्जल तीन उपवास किये थे, फाल्गुन वदी एकादशी का दिन था, इन संजोगों में अनन्त केवल ज्ञान प्रकट हुआ और आपने श्रमण धर्म के पंच महाव्रतों का उपदेश किया। धर्मचक्र को बाहुबली ने ऋषभदेव के स्मारक के रूप में बनवाया था, परन्तु कालान्तर में उस स्थान पर जिनचैत्य बन कर जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हुईं और इस स्मारक ने एक महातीर्थ का रूप धारण किया। प्रतिष्ठत जिनचैत्यों में चन्द्रप्रभ नामक आठवें तीर्थंकर का चैत्य ( प्रतिमा ) प्रधान था। इस कारण से इस तीर्थ के साथ चन्द्रप्रभ का नाम जोड़ दिया गया और दीर्घकाल तक वह इसी नाम से प्रसिद्ध रहा। महानिशीथ नामक जैन सूत्र में इसका वृत्तान्त मिलता है, जिसमें से थोड़ा सा अवतरण यहां देना योग्य समझते हैं "अहन्नया गोयमा ते साहुणो तं आयरियं भणंति-जहां रणं जइ भयवं तुम आणवेहि ता णं अम्हेहिं तित्थयत्तं करि (र) या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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