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________________ १४ से भी अर्वाचीन प्रतीत होती है, व्यवहार का यह परिवर्तन कब निश्चित रूप से कहना कठिन है, बहुत परिवर्तन हुए हैं, वे निर्ग्रन्थ हुआ और किसने किया, यह सूत्रों में कम ज्यादा जो थोड़े श्रमण संघ ने ही किये हैं । आचार्य आर्यरक्षित के परलोक वासी होने के उपरान्त दूसरी वाचना तत्कालीन युगप्रधान स्थविर स्कन्दिलाचार्य की प्रमुखता में मथुरा में हुई थी और उसमें उपलब्ध सभी जैन ग्रागम ताडपत्रों पर लिखे गए थे, लगभग इसी समय में दक्षिण-पश्चिमीय श्रमण संघ सौराष्ट्र देश के पाटनगर वलभी में भी एकत्र हुआ था और वहां पर भी यथोपलब्ध जैन आगम लिखे गये थे परन्तु उत्तरीय संघ के प्रधान और दाक्षिणात्य संघ के प्रधान आपस में मिल नहीं सके थे, भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा लिखाने में पाठभेद होना स्वभाविक था, इस बात का विक्रम की पांचवीं शती के युगप्रधान प्राचार्य देवद्विगणि क्षमाश्रमण को पता लगा, तब आपने सौराष्ट्र की तरफ विहार किया और उस प्रदेश में विचरने वाले आचार्य कालक तथा वादिवेताल शान्तिसूरि प्रमुख दाक्षिणात्य श्रमण संघ को भी वलभी में बुलाया और लम्बे समय तक दोनों प्रकार की वाचनाओं का समन्वय करने के साथ उनको एक रूप दिया और सूत्र तथा उनकी पंचांगी तथा इतर धार्मिक साहित्य लिखवाकर गृहस्थों के रक्षण के नीचे पुस्तक भंडार स्थापित करवाये । साहित्य विषयक इन सम्मेलनों में जो कुछ परिवर्तन हुए थे, वे सर्वसम्मति से ही हुए थे, अन्तिम दो वाचनाओं में मथुरा वाला सम्मेलन विशेष महत्त्वपूर्ण था, उसमें श्रमणों की संख्या भी अधिक थी और स्थविर स्कन्दिलाचार्य की सलाह से जो परिवर्तन हुए होंगे वे भी बड़े मार्के के होंगे, आचार्य स्कन्दिलाचार्य का समय विक्रम की चतुर्थशती का प्रथम भाग था, आर्यरक्षित के समय में ही श्रमण संख्या के आधिक्य से अनेक साधु संयम मार्ग से शिथिल हो चुके थे, www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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