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________________ १३ मामक और संप्रसारक इन नव प्रकार के साधुओं की वन्दना प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त विधान किया है, इन सब लेखों के विधान से प्रतीत होता है कि निशीथ के निर्माण समय में निर्ग्रन्थ श्रमण संघ में अनेक प्रकार के शिथिलाचार घुस गये थे । "आचारांग सूत्र” जो सर्व प्रथम मौर्यकाल में लिखा गया था उसमें आज तक केवल " पार्श्वस्थ " यह एक ही नाम उपलब्ध होता है, तब " सूत्र कृतांग" सूत्र में "पार्श्वस्थ" के साथ "कुशील" नाम भी प्रविष्ट हो गया है, ये दोनों सूत्र भद्रबाहु के समय में पाटलिपुत्र में लिखे गये थे । भद्रबाहु स्वामी द्वारा उद्धृत "बृहत्कल्पाध्ययन" में एक भी कुगुरु वाचक नाम नहीं मिलता, परन्तु इन्हीं के द्वारा पूर्वश्रुत से उद्धृत “व्यवहाराध्ययन" में पांच कुगुरुओं के नाम प्रविष्ट हो गये हैं, व्यवहार के प्रथम उद्देशक के सूत्र २८ से ३२ में पार्श्वस्थ, यथाछन्द, कुशील, अवसन्न और संसक्त इन पांच प्रकार के शिथिलाचारी साधुओं के नाम निर्देश करके लिखा है “भिक्षु अपने गण से निकल कर पार्श्वस्थ विहार से विचरे, यथाच्छन्द विहार से विचरे, कुशील विहार से विचरे, अवसन्न विहार से विचरे, अथवा संसक्त विहार से विचरे और कालान्तर में फिर उसकी इच्छा अपने गण का स्वीकार कर विचरने की हो जाय, वो उसे आलोचनापूर्वक पश्चात्ताप करना चाहिए और छेद परिहार अथवा उपस्थापना का स्वीकार करके गण में सम्मिलित होना चाहिए ।" व्यवहार के उपर्युक्त विधान से तो यही ज्ञात होता है कि आचार्य श्री भद्रबाहु के समय में जैन श्रमणों में पार्श्वस्थादि पांचों प्रकार के हीनाचारी साधु उत्पन्न हो चुके थे, परन्तु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है, यद्यपि "व्यवहार सूत्र" मूल में भद्रबाहु की कृति थी और अब तक उसी रूप में है तथापि पिछले समय में "व्यवहार" में अनेक प्रक्षेप हुए हैं और इसकी भाषा तक कल्प से तो क्या, निशीथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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