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और झोली में भिक्षा लाना ये सभी आर्यरक्षितसूरिजी के परिर्वतनों का फल है, इतने परिवर्तन करने वाले श्रुतधर को इन परिवर्तनों के अनुरूप नये नियमों की सृष्टि करना अनिवार्य हो जाता है, यदि भद्रबाहु स्वामी के बाद लगभग ४०० वर्षों में निर्ग्रन्थ श्रमणसंघ में बड़े-बड़े परिवर्तन न हुए होते तो आपको "प्रकल्पाध्ययन" के निर्माण की आवश्यकता ही नहीं रहती परन्तु कालदोष से संघ में परिवर्तन अगणित हो चुके थे और परिर्वतनों के अनुसार श्रमणसंघ के आचार विषयक नये नियमों का बनाना भी आवश्यक हो गया था, उस आवश्यकता की पूर्ति ही प्रार्यरक्षित का प्रस्तुत "प्रकल्पाध्ययन” है।
प्रकल्पाध्ययन (निशीथ) आर्यरक्षित की कृति है इस बात को प्रमाणित करने वाले कतिपय सूत्र हम लिख आए हैं और उनके सिवा भी ऐसे अनेक उल्लेख हैं, जो निशीथ का भी आर्यरक्षित कालीन होना प्रमाणित करते हैं, इसके चतुर्थ उद्देशक के सूत्र २८ से ३७ तक में पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, नित्यक, संसक्त नामक पांच प्रकार के शिथिलाचारी साधुओं के उल्लेख करके लिखा है कि इनको गोचरी पानी के लिए जाते समय अथवा बिहार के समय संघाटक नहीं देना चाहिए, न इनका “संधाटक' लेना चाहिए ।
इसी प्रकार निशीथ के १६ वें उद्देशक के उक्त पासत्यादि पांच प्रकार के कुसाधुओं को सूत्र २७ से ३७ तक के १० सूत्रों में वाचना देने और उनसे वाचना लेने का निषेध किया गया है।
निशीथ के १३ वें उद्देशक में ४२ से ५६ तक के सूत्रों में पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, नित्यक, संसक्त, काथिक, प्राश्निक,
'जैन श्रमण को कहीं भी जाना हो तो अकेला न जाकर साथ में एक साधु लेकर जाना चाहिए, जैन शास्त्रीय परिभाषा में इस श्रमण युगल को “संघाटक' कहते हैं, पार्श्वस्थादि पांच कुगुरुओं को न अपना संघाटक देना चाहिए, न इनमें से अपने लिए “संघाटक' ग्रहण करना चाहिए ।
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