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________________ आचार विधियों में अनेक परिवर्तन किये, उनके पहले से आगमों के चारों ही अनुयोग एक साथ चलते थे, उनको चार विभागों में बांटकर सूत्र पढ़ने वाले श्रमणों का मार्ग सुगम बनाया । इनके पहले के अनुयोग धर कालिक श्रुत में भी नयों की चर्चा करते थे, आपने कालिक श्रुत में नयों की चर्चा करना रोक दिया, आपके पहले जैन श्रमणियां भी छेद सूत्र पढ़ती थीं और अपने वर्ग को प्रायश्चित्त प्रदान करती थीं, परन्तु स्थविर आर्य रक्षितसूरिजी ने श्रमणियों के लिए छेदसूत्र पढ़ना सदा के लिए बन्द कर दिया और श्रमणियों के लिए जानने योग्प जो सूत्र-नियम होते उनको "वृषभ' द्वारा श्रमणियों की प्रवर्तिनी को समझा देने का विधान किया। निशीथाध्ययन के प्रथम उद्देशक के ४० वें सूत्र में निर्ग्रन्थ भिक्षु के लिए दण्डक, लाठी, अवलेखिनिका और वेणुसुई का विधान किया है और इन चीज़ों की अन्यतीर्थिक और गृहस्थ से घिसाई, पालिश आदि न करवाने का आदेश किया है। इसी उद्देशक के ४६ वें सूत्र में साधु को अविधि से वस्त्र सीना, सीते हुए का अनुमोदन करना निषिद्ध किया है, इसी प्रकार इस उद्देशक के ५६ वें सूत्र में भिक्षु को परिमाण के अतिरिक्त लिए हुए वस्त्र को डेढ महीने के उपरान्त अपने पास न रखने का आदेश किया है, ये सभी आदेश और नियम आर्यरक्षितसूरिजी के नये परिवर्तनों के बाद बने हुए हैं, उक्त नियम और आदेश मात्र नमूने के रूप में बताये हैं, बाकी निशीथाध्ययन में सैंकडों ऐसे नियम और विधान हैं, जो भद्रबाहुउद्धृत दशा, कल्प और व्यवहार में नहीं हैं। साध्वी को “कमठक" नामक छोटा पात्र रखना, साधु को "पतद्ग्रह" के अतिरिक्त चातुर्मास्य में 'मात्रक" नामक दूसरा पात्र रखना, साधु को "अग्रावतार" के बदले में "चोलपट्टक" बांधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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