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________________ २६८ "योजनद्वयतुङ्गेऽस्य, शङ्ग जिनगहावलिः । पुण्यराशिरिवाभाति, शरच्चन्द्रांशुनिर्मला ॥४॥ सौवर्णदण्डकलशाऽमलसारकशोभितम् ।। चारुचैत्यं चकास्त्यस्योपरि श्री नेमिनः प्रभोः ।।५।। श्रीशिवासू नुदेवस्य, पादुकाऽत्र निरीक्षिता । स्पृष्टार्चिता च शिष्टानां. पापव्यहं व्यपोहति ।।६।। प्राज्यं राज्यं परित्यज्य, जरत्तणमिव प्रभुः । बन्धून् विधूय च स्निग्धान् प्रपेदेऽत्र महाव्रतम् ॥७॥ अत्रैव केवलं देवः, स एवं प्रतिलब्धवान् । अगाज्जनहितैषी स, पर्यणेषीच्च नि तिम् ॥८॥ अर्थात्-'इस उज्जयन्त गिरि के दो योजन ऊंचे - शिखर पर बनवाने वालों के निर्मल पुण्य की राशि सी, चन्द्रकिरण समान उज्ज्वल जिन मन्दिरों की पंक्ति सुशोभित है। इसी शिखर पर सुवर्णमय दण्ड, कलश तथा प्रामलसारक से सुशोभित भगवान् नेमिनाथ का सुन्दर चैत्य दृष्टिगोचर हो रहा है । यहीं पर प्रतिष्ठित शैवेय जिन की चरण पादुका दर्शन, स्पर्शन, पूजन से भाविक यात्रिक गण के पाप को दूर करती है और यहीं पर जीर्ण तिनखे की तरह समृद्ध राज्य तथा विशाल कुटुम्ब का त्याग कर भगवान् नेमिनाथ ने महाव्रत धारण किये थे और यहीं पर भगवान् केवल ज्ञानी हुए, तथा जगत्हित चिन्तक भगवान् नेमिनाथ यहीं से निर्वाण पद प्राप्त हुए। "अत एवात्र कल्याणत्रय-मन्दिरमादधे । श्रीवस्तुपालो मन्त्रीश-श्चमत्कारितभव्यहृत् ।।६।। जिनेन्द्रविम्बपूर्णेन्द्र-मण्डपस्था जना इह । श्रीनेमेमज्जनं कतु-मिन्द्रा इव चकासति ॥१०॥ गजेन्द्रपदनामास्थ, कुण्डं मण्डयते शिरः। सुधाविधैर्जलैः पूर्ण, स्नाप्याई तत्स्नपनक्षमः ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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