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रत्नमयी प्रतिमा की झल-हलती कान्ति को ढांप दिया । (वि. ती. क. पृ. ६.)
इसी कल्प में इस तीर्थ-सम्बन्धी अन्य भी ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं जो नीचे दिये जाते हैं
"पधि गुज्जर धराए जयसिंहदेवेणं खंगाररायं हणित्ता सज्जणो दंडाहियो ठावित्रो। तेणय अहिणवं नेमिजिणिदभवणं एगारससय-पंचासीए (११८५) विक्कमरायवच्छरेकाराविरं । चोलुक्कचक्किसिरिकुमारपालनरिंदसंठविप्रसोरठदंडाहिवेण सिरिसिरिमालकुलुभवेण बारससयवीसे (१२२०) विक्कम संवच्छरे पज्जा काराविना तम्भवेण धवलेण अंतराले पवा भरावित्रा । पज्जाए चडतेहि जणेहिं दाहिणदिसाए लक्खारामो दीसइ ।"
(वि. ती. क. पृ. ६.) अर्थात्-'पूर्वकाल में गुर्जरभूमिपति चौलुक्य राजा जयसिंह देव ने जूनागढ़ के राजा राखेङ्गार को मारकर दण्डाधिपति सज्जन को वहाँ का शासक नियुक्त किया । सज्जन ने विक्रम संवत् ११८५ में भगवान् नेमिनाथ का नया भवन बनवाया, बाद में मालव भूमि भूषण साधु भावड ने उसपर सुवर्णमय आमल सारक करवाया।' ... 'चौलुक्य चक्रवर्ती श्री कुमारपाल देव-नियुक्त श्री श्रीमाल कुलोत्पन्न सौराष्ट्र दण्डाधिपति ने विक्रम संवत् १२२० में उज्जयन्त पर्वत पर चढ़ने को सोपानमय मार्ग करवाया, उसके पुत्र धवल ने सोपान-मार्ग में प्याऊ बनवाई, इस पद्या मार्ग से ऊपर चढने वाले यात्रिक जनों को दक्षिण दिशा में लक्षाराम नामक उद्यान दीखता है।'
इन कल्पों के अतिरिक्त उज्जयन्त तीर्थ के साथ संबन्ध रखने वाले अनेक स्तुति-स्तोत्र भी भिन्न भिन्न कवियों के बनाये हुए जैन ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध होते हैं, जिनमें से थोड़े से श्लोक नीचे उद्धृत करके इस तीर्थ का वर्णन समाप्त करेंगे।
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