________________
२६६
धर्म देशना की और अवलोकन नामक ऊँचे शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया ।
'रैवतक की मेखला में कृष्णवासुदेव ने निष्क्रमणादि तीन कल्याणकों का उत्सव करके रत्न प्रतिमाओं से शोभित तीन जिन चैत्य तथा एक अम्बादेवी का मन्दिर बनवाया ।' (वि. ती क. पृ. ६ . ) " रैवतक गिरि कल्प में कहा है- 'पश्चिम दिशा में सौराष्ट्र देशस्थित रैवतक पर्वतराज़ के शिखर पर श्री नेमिनाथ का बहुत ऊँचे शिखर वाला भवन था, जिसमें पहले भगवान् नेमिनाथ की लेपमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित थी, एक समय उत्तरापथ के विभुषण समान काश्मीर देश से अजित तथा रतना नामक दो भाई संघपति बनकर गिरनार तीर्थ की यात्रा करने आए और भक्तिवश केशर चन्दनादि के घोल से कलशे भरकर उस प्रतिमा को अभिषिक्त किया, परिणाम स्वरूप वह लेपमयी प्रतिमा लेप के गल जाने से बहुत ही बिगड़ गई इस घटना से संघपति-युगल बहुत ही दुःखी हुआ और आहार का त्याग कर दिया, इक्कीस दिन के उपवास के अन्त में भगवती अम्बिका देवी वहां प्रत्यक्ष हुई और संघपति को उठाया, उसने देवी को देखकर जय जय शब्द किया, देवी ने संघपति को एक रत्नमयी प्रतिमा देते हुए कहा - 'लो यह प्रतिमा ले जाकर बैठा दो, पर प्रतिमा को स्थान पर बिठाने के पहले पीछे न देखना । संघपति प्रजित सूत के कच्चे धागे के सहारे प्रतिमा को अन्दर ले जा रहा था, वह प्रतिमा के साथ नेमिभवन के सुवर्णमय बलानक में पहुंचा और बिंब के द्वार की देहली के ऊपर पहुंचते संपति का हृदय हर्ष से उमड़ पड़ा, और देवी की शिक्षा को भूलकर सहसा उसका मुँह पिछली तरफ मुड़ गया और प्रतिमा वहाँ ही निश्चल हो गयी, देवी ने 'जय जय शब्द के साथ पुष्प वृष्टि की, यह प्रतिमा संघपति द्वारा नवनिर्मित जिन- प्रासाद में वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को प्रतिष्ठित हुई । स्नपनादि महोत्सव करके संघपति जित अपने भाई के साथ स्वदेश पहुंचा, कलिकाल में मनुष्यों के चित्त की कलुषता जानकर अम्बिका देवी ने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org