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निव्वाणं ९ चिड़गागिई. जिणस्स- इक्खाग-सेसयाणं च । सकहा ३ थूभ जिणहरे ४ जायग ५ तेणा हिअरिंगत्ति || ४३५ ||
तब संसार दुःख का अन्त करने वाले भगवान् ऋषभदेव सम्पूर्ण एक लाख पूर्व वर्षों तक पृथ्वी पर विहार करके अनुक्रम से अष्टापद पर्वत पर पहुंचे । और छः उपवास के तप के अन्त में दस हजार मुनिगण के साथ सर्वोच्च निर्वाण को प्राप्त हुए ।।४३३।४३४।।
भगवान और उनके शिष्यों के निर्वणानन्तर चतुर्निकायों के देवों ने आकर उनके शवों के अग्निसंस्कारार्थ तीन चिताऐं बनवाई, एक पूर्व में गोलाकार चिता तीर्थंकर शरीर के दाहार्थ, दक्षिण में त्रिकोणाकार चिता इक्ष्वाकुवंश्य गणधर आदि महामुनिओं के शवदाहार्थ और पश्चिम दिशा की तरफ चौकोण चिता शेष श्रमण गण के शरीर संस्कारार्थ बनवाई और तीर्थंकर आदि के शरीर यथास्थान चिताओं पर रखवाकर, अग्निकुमार देवों ने उन्हें अग्निद्वारा सुलगाया, वायुकुमारदेवों ने वायुद्वारा अग्नि को जोश दिया और चर्म मांस के जल जाने पर, मेघ कुमार देवों ने जलवृष्टि द्वारा चिताओं को ठण्डा किया, तब भगवान् के उपरी बायें जबड़े की शक ेन्द्र ने, दाहिनी तरफ की ईशानेन्द्र ने तथा निचले जबड़े की बायीं तरफ की चमरेन्द्र ने और दाहिनी तरफ की दाढायें बोन्द्र ने ग्रहण की । इन्द्रों के अतिरिक्त शेष देवों ने भगवान् के शरीर की अन्य अस्थियां ग्रहण करली तब वहाँ उपस्थित राजादि मनुष्य गण ने तीर्थंकर तथा मुनिओं के शरीरदहन स्थानों की भस्मी को भी पवित्र जानकर ग्रहण कर लिया, चिताओं के स्थानों पर देवों ने तीन स्तूप बनवाये और भरत चक्रवर्ती ने चौबीस तीर्थंकरों की वर्ण - मानोपेत सपरिकर मूर्तियां स्थापित करने योग्य जिन - गृह बनवाये, उस समय जिन मनुष्यों को चिताओं से अस्थि भस्मादि नहीं मिला था, उन्होंने उसकी प्राप्ति के लिए देवों से बड़ी नम्रता के साथ याचना की जिससे इस अवसर्पिणी काल में
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