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द्वारपाल स्थापित किये थे । इतना ही नहीं परन्तु पर्वत को चारों ओर से छिलवाकर सामान्य भूमि गोचर मनुष्यों के लिये, शिखर पर पहुंचना अशक्य बनवा दिया था, उसकी ऊँचाई के आठ भाग कर क्रमशः आठ मेखलायें बनवाई थीं और इसी कारण से इस पर्वत का 'अष्टापद' यह नाम प्रचलित हुआ था, भगवान् ऋषभदेव के इस निर्वाणस्थान के दुर्गम बन जाने के बाद, देव, विद्याधर विद्याचारण लब्धिधारी मुनि और जङ्घाचारण मुनियों के सिवाय अन्य कोई भी दर्शनार्थी अष्टापद पर नहीं जा सकता था और इसी कारण से भगवान महावीर स्वामी ने धर्मोपदेश सभा में यह सूचन किया था कि जो मनुष्य अपनी आत्मशक्ति से अष्टापद पर्वत पर पहुंचता है वह इसी भव में संसार से मुक्त होता है ।
अष्टापद के अप्राप्य होने का तीसरा कारण यह भी है कि सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने अष्टापद पर्वत स्थित जिन- चैत्य, स्तूप आदि को अपने पूर्वज संबन्धी भरत चक्रवर्ती के स्मारक के चारों तरफ गहरी खाई खुदवाकर उसे गंगा के जल प्रवाह से भरवा दिया था, ऐसा प्राचीन जैन कथा - साहित्य में किया गया वर्णन आज भो उपलब्ध होता है ।
उपर्युक्त अनेक कारणों से हमारा अष्टापद तीर्थ के जिसका निर्देश श्रुत केवली भगवान भद्रबाहु स्वामी ने अपनी आचाराङ्ग निर्युक्ति में सर्व प्रथम किया है, हमारे लिए आज अदर्शनीय और लुप्त बन चुका है ।
आचाराङ्ग निर्युक्ति के अतिरिक्त आवश्यक निर्युक्ति की निम्न लिखित गाथाओं से भी अष्टापद तीर्थ का विशेष परिचय मिलता है ।
शेलं ||४३३ ||
"ग्रह भगवं भवमहणो, पुव्वाणमरणूणगं सय सहस्सं । अणुपुत्रि विहरिऊणं, पत्तो श्रद्वावयं अट्टाभि शेले, चउदसभचेण सो दसहि महस्सेहिं समं
महरिसीणं । पत्तो ||४३४ ||
निव्वाणमणुत्तरं
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