________________
२५९
नियुक्तिकार भगवान भद्रबाहुस्वामी ने, तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, विहार, ज्ञानोत्पत्ति निर्वाण आदि के स्थानों को तीर्थ स्वरूप मानकर वहां रहे हुए जिन चैत्यों को वन्दन किया है, यही नहीं, परन्तु राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, स्थानाङ्ग, भगवती आदि सूत्रों में वर्णित देवलोक स्थित, असुर-भवन-स्थित, मेरूस्थित, नन्दीश्वरद्वीपस्थित और व्यन्तर देवों के भूमि-गर्भस्थित नगरों में रहे हुए चैत्यों की शाश्वत जिन प्रतिमाओं को भी वन्दन किया है ।
नियुक्ति की गाथा तीन सौ बत्तीसवीं में नियुक्तिकार ने तत्कालीन भारत वर्ष में प्रसिद्धि पाये हुए सात अशाश्वत जैन तोर्थो को वन्दन किया है, जिन में से एक को छोड़कर शेष सभी प्राचीन तीर्थ विच्छिन्न प्राय हो चुके हैं, फिर भी शास्त्रों तथा भ्रमण-वृतान्तों में इनका जो वर्णन मिलता है उसके आधार पर इनका यहां संक्षेप में निरूपण किया जायगा।
(१) अष्टापद--
अष्टापद पर्वत ऋषभदेव कालीन अयोध्या से उत्तर की दिशा में अवस्थित था, भगवान् ऋषभदेव जब कभी अयोध्या की तरफ पधारते, तब अष्टापद पर्वत पर ठहरते थे और अयोध्यावासी राजा-प्रजा उनकी धर्म सभा में दर्शन-वन्दनार्थ तथा धर्म श्रवणार्थ जाते थे, परन्तु वर्तमान कालीन अयोध्या के उत्तर दिशा भाग में ऐसा कोई पर्वत आज दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे अष्टापद माना जा सके। इसके अनेक कारण ज्ञात होते हैं, पहला तो यह है कि भारत के उत्तरद्गि विभाग में रही हुई पर्वत श्रेणियां उस समय में इतनी ठण्डी और हिमाच्छादित नहीं थी जितनी आज हैं। दूसरा कारण यह है कि अष्टापद पर्वत के शिखर पर भगवान् ऋषभदेव उनके गणधर तथा अन्य शिष्यों का निर्वाण होने के बाद देवताओं ने तीन स्तूप और चक्रवर्ती भरत ने सिंहनिषद्या नामक जिन-चैत्य बनवाकर उसमें चौबीस तीर्थङ्करों की वर्ण तथा मानोपित प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवा के, चैत्य के चारों द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org