________________
२५८
सूत्रोक्ततीर्थ-
"आचारांग नियुक्ति" की निम्नलिखित गाथाओं में प्राचीन
तीर्थो का नाम निर्देश मिलता है
"दंसण - नाग-चरिते, तववेरग्गे य जाय जहा ताय तहा, लक्खणं वुच्छं तित्थगराण भगवओो, पययण- पावर्याणि अइसइष्ठीलं । अभिगमण-नमण-दरिसण- कित्तण- संपूणाथुणणा जम्मा भिसेय- निक्खमण चरण - नाप्यया य निव्वाणं । दियलोभवण - मंदर - नंदीसर - भोमनगरेसु अट्ठावय-मुज्जिते, गयग्गपयर य चमरुप्पायं
पासरहावत्तनगं,
होइ उपसत्था ।
सलक्खाओ || ३२६ ॥
Jain Education International
॥३३० ॥
॥३३१ ॥
धम्मचक्के य ।
च
वंदामि ||३३२||
अर्थात् -- दर्शन, ( सम्यक्त्व ) - ज्ञान, चारित्र तप, वैराग्य विनय विषयक भावनायें जिन कारणों से शुद्ध बनती हैं, उनको स्वलक्षणों के साथ कहूंगा || ३२६ ।।
2
तीर्थंकर भगवन्तों के, उनके प्रवचन के प्रवचन प्रचारक प्रभावक आचार्यों के, केवल, मन पर्यव-अवधिज्ञान - वैक्रियादि अतिशायि लब्धिधारी मुनियों के सन्मुख जाने, नमस्कार करने, उनका दर्शन करने, उनके गुणों का कीर्तन करने, उनकी अन्न वस्त्रादि पूजा करने से दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य, सम्बन्धी गुणों की शुद्धि होती है ||३३०॥
से
जन्मकल्याणकस्थान, जन्माभिषेक स्थान, दीक्षास्थान, श्रमणावस्थाकी विहार भूमि, केवल ज्ञानोत्पत्ति का स्थान, निर्वाण - कल्याrs भूमि, देव लोक, असुरादि के भवन, मेरु पर्वत, नन्दीश्वर के चैत्यों और व्यन्तर देवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिन प्रतिमाओं को अष्टापद, उज्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र, आहिच्छत्रास्थितपार्श्वनाथ, रथावर्त पर्वत, चमरोत्पात, इन नामों से प्रसिद्ध जैन तीर्थों में स्थित जिन प्रतिमाओं को मैं वन्दन करता हूँ ।।३३१-३३२ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org