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प्राचीन जैन तीर्थ लेखक-पं० कल्याण विजय गणि
उपक्रम पूर्वकाल में "तीर्थ" शब्द मौलिक रूप में "जैन प्रवचन" अथवा "चातुर्वर्ण्य संघ" के अर्थ में प्रयुक्त होता था, ऐसा जैन आगमों से ज्ञात होता है जैन प्रवचन कारक और जैन-संघ के स्थापक होने से ही "जिन-देव" "तीर्थङ्कर" कहलाते हैं ।
तीर्थ का शब्दार्थ यहां “नदी समुद्र से बाहर निकलने का सुरक्षित मार्ग" होता है, आज की भाषा में इसे "घाट" कह सकते हैं। जैन शास्त्रों में तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति "तीर्यते संसारसागरो येन तत् तीर्थम्" इस प्रकार की गई है, संसार समुद्र को पार कराने वाले "जिनागम" को और "जैन श्रमण संघ' को “भाव-तीर्थ" बताया गया है, तब नदी-समुद्रों को पार कराने वाले तीर्थों को "द्रव्य-तीर्थ' माना है।
उपर्युक्त तीर्थों के अतिरिक्त जैन आगमों में कुछ और भी तीर्थ माने हैं, जिन्हें पिछले ग्रन्थकारों ने "स्थावर तीर्थों" के नाम से निर्दिष्ट किया है, और वे दर्शन की शुद्धि करने वाले माने गये हैं, इन स्थावर तीर्थों का निर्देश आचाराङ्ग, आवश्यक आदि सूत्रों की नियुक्तियों में मिलता है, जो मौर्य राज्य से भी प्राचीन ग्रन्थ हैं ।
जैन स्थावर तीर्थो में अष्टापद (१) उज्ज्यन्त (गिरनार) (२) गजाग्रपद (३) धर्मचक्र (४) अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ (५) रथावर्त पर्वत (६) चमरोत्पात (७) शत्रुजय (८) सम्मेत-शिखर (९) और मथुरा का देव निर्मित स्तूप (१०) इत्यादि तीर्थों का संक्षिप्त अथवा विस्तृत वर्णन जैन सूत्रों तथा सूत्रों की नियुक्तियों भाष्यों में मिलता है, अतः इनको हम सूत्रोक्त तीर्थ कहेंगे ।
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