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ऊपर के कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह षड्भाषा' चन्द्रिका त्रिविक्रम देव के प्रा० शब्दानुशासन की विस्तृत वृत्ति है और दोनों ग्रन्थकारों के एक दूसरे के ग्रन्थ का नामोल्लेख करने से दोनों विद्वान् सम-सामयिक थे यह भी निश्चित हो जाता है । त्रिविक्रमदेव ने अपने धर्मगुरु तथा पितृवंश का संक्षिप्त परिचय दिया है, इसी प्रकार लक्ष्मीधर ने भी अपने वंश का थोड़ा सा परिचय दिया है, प्रस्तुत दो में से किसी ने भी ग्रन्थ निर्माण का समय नहीं लिखा, फिर भी इन दोनों ने प्रसिद्ध वैयाकरण आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की सहायता लेने का उल्लेख किया है, इससे सिद्ध है कि ये दोनों ग्रन्थकार आचार्य हेमचन्द्र के परवर्ती हैं यह हमारा अनुमान है, इन ग्रन्थों का निर्माण समय विक्रम की १३ वीं शती का अन्तिम भाग अथवा चौदहवीं शती का प्रारंभ हो सकता है।
'षड्भाषा-चन्द्रिकाकार" ने अपने ग्रन्थ में कुछ ग्रन्थकारों के मतों का निरसन भी किया है जैसे-'षड्भाषारूपमालिकाकार श्रीदुर्गणाचार्येणोक्त चिन्त्यम्' इत्यादि उल्लेखों से ग्रन्थकार के सामने उस वक्त छोटे-मोटे प्राकृत भाषा के निबन्ध होने चाहिए।
दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान् श्रुतसागर सूरि ने भी एक प्राकृत व्याकरण बनाया था, ऐसा "षट् प्राभृत" पर की उनकी टीका से ज्ञात होता है, "षट् प्राभृत'' में आये हुए अनेक शब्दों तथा क्रियापदों को श्रुतसागर ने अपने प्राकृत व्याकरण के सूत्र उद्धृत कर लाक्षणिक बतलाने की चेष्टा की है, जब कि वे अलाक्षणिक प्रयोग षड्भाषाचन्द्रिका, त्रिविक्रम देव के प्राकृत शब्दानुशासन और हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण आदि प्राचीन व्याकरणों से लाक्षणिक सिद्ध नहीं होते हैं, इससे हमने यह निश्चित किया कि "षट्प्राभूत की टीका' ही नहीं किन्तु ये "छ: प्राभृत' भी श्रुतसागर की खुद की कृति हैं, जो कि आज आचार्य कुन्द-कुन्द की कृति माने जाते हैं।
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