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________________ २५१ चान्द्र व्याकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी के आधार से निश्चित रूप से बना है, कतिपय पाणिनीय सूत्र ज्यों के त्यों इसमें उपलब्ध होते हैं, अधिकांश सूत्रों को परिवर्तित रूप में ग्रहण किया है, तब कतिपय सूत्र छोड़ दिए गए हैं, परन्तु उनसे सिद्ध होने वाले, शब्दों को आकृति गणों में मिला दिया है और वृत्ति में अनेक स्थानों पर पाणिनि का बहुमान सूचक नाम निर्देश किया है। इससे ज्ञात होता है कि पाणिनीय व्याकरण विशेष विस्तृत होने के कारण उसी के आधार पर कर्ता ने यह संक्षिप्त व्याकरण रचा है, इसके कुल अध्याय कितने थे, इसका निश्चय तो नहीं है, फिर भी कोई कोई विद्वान् इसके आठ अध्याय होने का अनुमान करते हैं, परन्तु अन्तिम दो अध्याय कहीं भी उपलब्ध नहीं होते, वर्तमान समय में इसके छ: अध्याय विद्यमान हैं। जिनमें से प्राथमिक तीन अध्याय मुद्रित भी हो गए हैं। ___ पाणिनि की तरह चन्द्र ने अपने मूल सूत्रों में किसी भी अन्य वैयाकरण का नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु इसकी वृत्ति में कतिपय प्राचीन वैयाकरणों के नाम दृष्टिगोचर अवश्य होते हैं । काशकृत्स्नि का व्याकरण कितने अध्यायों में समाप्त हुआ है, इसका सूचन करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं-"त्रिकाः काश कृत्स्नाः ' अर्थात् काशकृत्स्न के अनुयायी तीन अध्यायों का व्याकरण पढ़ते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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