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हमारी राय में वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक शंकराचार्य" हीं हो सकते हैं । यदि हमारा यह अनुमान ठीक हो तो चान्द्र व्याकरण के कर्त्ता चन्द्रगोमी का सत्ता- समय विक्रमीय अष्टम शती के बाद का सिद्ध होता है । प्रथम अध्याय के दूसरे पाद के ८१ वें सूत्र की वृत्ति में वृत्तिकार ने "प्रजयज्जत हूणानिति" जर्त्त द्वारा हूणों की पराजय का उदाहरण दिया है, हूणों को जीतने वाला जर्त्त कौन था, ज्ञात नहीं हुआ, परन्तु भारत में हूणों की पराजय अष्टम शती में हुई थी, यह इतिहास से सिद्ध होता है और इससे यदि चान्द्रव्याकरण की मुद्रित वृत्ति स्वोपज्ञ है, तो चान्द्र के कर्त्ता "चन्द्रगोमी " भी विक्रम की अष्टम शती के पहले के नहीं हो सकते ।
चान्द्र का निर्माण प्रदेश कतिपय विद्वान् बंगाल को मानते हैं, इसमें खास आपत्ति जैसी बात तो नहीं दिखती, फिर भी इसमें कतिपय उल्लेख ऐसे मिलते हैं, कि जिनसे इसका निर्माण स्थान बंगाल की अपेक्षा से बिहार को मानना विशेष युक्तियुक्त मालूम होता है, जिस प्रदेश में यह व्याकरण रचा गया है, उस देश में उस समय महिना पूर्णिमान्त माना जाता था, -- “ सास्य पौर्णमासी ३|१|१८ " इस सूत्र से तथा " पूर्णो मा अस्यामिति निर्वचनादत एव निपातनादण् । मासश्रुतेश्च न पञ्चरात्रौविधि : " इस वृत्ति के कथन से चान्द्र के निर्माण स्थल में पूर्णिमान्त चान्द्र मास माना जाता था, बंगाल में आजकल सौरमास माना जाता है । यह मान्यता कितनी प्राचीन है, इसका निश्चय करना तो कठिन है, चन्द्रगोमी के समय में सौरमास की मान्यता बंगाल में तो असंभव नहीं, कुछ भी हो इसके वृत्तिकार जितने परिचित थे, उतने बंगाल से नहीं, मगध के अनेक स्थानों के नाम निर्देश ही नहीं उनके एक दूसरे के बीच की दूरी तक
फिर भी चलती हो मगध से
का भी परिचय दिया है, इन बातों करण का निर्माण क्षेत्र पाटलीपुत्र ऐसा निश्चित है ।
से हमारे मत से तो इस व्याअथवा राजगृह होना चाहिए,
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