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२४६ इसमें कोई शंका नहीं, इससे स्पष्ट हो जाता है कि "चन्द्र व्याकरण" का कर्ता जैन श्रमणों को दाम्भिक मानने वाला बौद्ध विद्वान् था।
चन्द्रव्याकरण के कर्ता आचार्य चन्द्रगोमी के सत्ता समय के बारे में विद्वानों की अनेक कल्पनाएँ हैं, कोई इसे विक्रम का पूर्वगामी मानते हैं, तब कोई इसे विक्रम की छठवीं शती के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान “आचार्य धर्मकीर्ति" का शिष्य मानते हैं। परन्तु हमारे विचार में 'चान्द्र व्याकरण" इतनी प्राचीन कृति नहीं है, "पातञ्जल महाभाष्य" में उनके पुरोगामी आपिशलि, काशकृत्स्नि, कात्यायन आदि अनेक प्रसिद्ध वैयाकरणों के नाम निर्दिष्ट हुए हैं। परन्तु “चान्द्र" का कहीं उल्लेख तक नहीं, प्रत्युत चान्द्रकार ने पात
जल महाभाष्य का उपजीवन किया है, इस परिस्थिति में व्याकरणकार चन्द्रगोमी को विक्रम के पूर्व हजार वर्ष पर हुआ मानना यह केवल कल्पना मात्र है।
उपलब्ध चान्द्र व्याकरण की वृत्ति में अनेक ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जो कि चान्द्र की वृत्ति के कर्ता को विक्रम की नवम शताब्दी तक खींच लाते हैं।
प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद के "साधोः" इस ५७ वें सूत्र की वत्ति में
ब्रह्मणो वादः ब्रह्मवादः सोऽस्यास्तीति ब्रह्मवादी" एक वचनान्त शब्द विन्यास से आभास मिलता है कि चान्द्र वृत्तिकार शंकराचार्य के ब्रह्मवादी दर्शन के समकालीन अथवा परवर्ती होने चाहिए, यद्यपि महाभाष्य में "ब्रह्मवादः तथा ब्रह्मवादिनों" इत्यादि शब्दप्रयोग मिलते हैं, परन्तु भाष्य के ये दो शब्द किसी दर्शन विशेष के प्रवर्तक को सूचित नहीं करते, किन्तु उनके समय में भिन्न भिन्न उपनिषदों में आने वाले "ब्रह्म" शब्द की चर्चा करने वाले ऋिषियों का सूचन करते हैं । तब चान्द्र वृत्तिकार का "ब्रह्मवादी" यह शब्द ब्रह्मवाद को व्यवस्थित कर उसकी भित्ति पर एक · दर्शन की सृष्टि करने वाली व्यक्ति की सूचना करता है। वह व्यक्ति
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