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चान्द्रव्याकरण ( पूर्वार्ध) कर्ता-आचार्य चन्द्रगोमी
चान्द्र व्याकरण का पूर्वार्ध अर्थात् तीन अध्याय इस समय हमारे सामने हैं, इसका प्रारम्भ-मंगलाचरण इस प्रकार है
"सिद्ध प्रणम्य सर्वज्ञ, सर्वीयं जगतो गुरुम् ।
लघु-विस्पष्ट-सम्पूर्ण-मुच्यते शब्दलक्षणम् ॥१॥ उपर्युक्त मंगलाचरण से ग्रन्थ कर्ता बौद्ध अथवा जैन सम्प्रदाय को मानने वाला ज्ञात होता है, प्रस्तुत तीन अध्यायों के सूत्रों तथा वृत्ति में लेखक (ग्रन्थ कर्ता) ने ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया जिससे कि उसकी बौद्ध-सम्प्रदायिकता ज्ञात हो सके। फिर भी उसके तृतीय अध्याय के चौथे पाद के "लालाटिक-कौक्कुटिको ४४" इस सूत्र की वृत्ति में ग्रन्थकार ने अपने आपको प्रकट कर ही दिया है, इसकी व्याख्या निम्न प्रकार से करते हैं
कुक्कुटीशब्देनं कुक्कुटीपातो लक्ष्यते, तेन देशस्याल्पता, योऽपि भिवरविक्षिप्तदृष्टिः पादविक्षेवदेशे चक्षः संयम्य गच्छति स कोक्कुटिकः । योऽपि वा तथाविधमात्मानं सन्दर्शयति. (स) कौकुटिकः । कुक्कुटीति दाम्मिकानां चेष्टोच्यते, तामाचरति कौकुटिका ।"
अर्थात्-कुक्कुटी शब्द से यहाँ कुक्कुटी के पाद विन्यास को समझना चाहिए, जिससे पाद विन्यास भूमि की अल्पता सूचित हो, तात्पर्य यह है, जो भिक्षुः स्थिरदृष्टि होकर गमन मार्ग में अपनी दृष्टि को नियन्त्रित रखता हुआ चले, वह "कौक्कुटिक" याने दम्भी है । यह सूत्र व्याख्या युग परिमित पथ-मार्ग में दृष्टि रखते हुए ईर्यापथशोधनतत्पर जैन श्रमण को लक्ष्य बनाकर की गई है,
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