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________________ है, वर्तमान ग्रन्थ का कलेवर भी मौलिक रूप में हो ऐसा प्रतीत नहीं होता, रत्नेश्वरकृत राजादिगण तो भिन्न प्रतीत होता ही है, पर कृदन्त के आद्य सूत्र की व्याख्या के एक उल्लेख से यह भी ज्ञात होता है कि वर्तमान तद्धित प्रकरण भी अन्य कर्तृक है, इससे आचार्य हेमचन्द्र के “सिद्धहैम शब्दानुशासन" की प्रशंसा के पद्य में आया हुआ “कातन्त्र कन्थावृथा' यह वाक्यखंड बिलकुल ठीक है, कातन्त्र सचमुच भिन्न भिन्न विद्वानों की कृतियों द्वारा बनी हुई एक गुदड़ी ही है और इससे इसकी अतिप्राचीनता स्वयं सिद्ध हो जाती है, आचार्य दुर्गसिंह ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में “वक्ष्ये व्याख्यानं शार्ववर्मिकम्" इस लेख से यह तो स्पष्ट कर दिया है कि इस व्याकरण पर इनके समय में शर्ववर्म कृत कोई विशिष्ट व्याख्यान होगा कि जिसके आधार पर इन्होंने अपनी वृत्ति निर्माण की है, कातन्त्र का दूसरा नाम "कलाप'' व्याकरण भी प्रसिद्ध है, इस नाम का कारण इसका विभाग “चतुष्टय" ही हो सकता है। कातन्त्र व्याकरण की परिभाषाएं बहुत प्राचीन ज्ञात होती हैं, जिनका अनुसरण आचार्य हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन में किया है, यद्यपि पाल्यकीति का शाकटायन तथा “देवनन्दि" का माना जाने वाला "जैनेन्द्र व्याकरण" कातन्त्र की परिभाषाओं के साथ साम्य नहीं रखते, फ़िर भी इन तीनों व्याकरणों को पढ़ने के बाद हमारे मन पर जो छाप पड़ी है वह यह है कि कातन्त्र के बाद शाकटायन और शाकटायन के बाद वर्तमान जैनेन्द्र व्याकरण की रचना हुई है। इस विषय पर विशेष विवेचन यहाँ न कर भविष्य पर छोड़ते हैं । कातन्त्र व्याकरण के किसी मूल सूत्र में अन्य व्याकरणकार के नाम तथा मत का निर्देश नहीं है, वृत्तिकार दुर्गसिंह ने इस वृत्ति में पाणिनि, कात्यायन, रत्नेश्वर का नामोल्लेख किया है और तीन स्थानों पर "गणकार" इस नाम से किसी अनिर्दिष्ट ग्रन्थकार का नाम सूचन किया है। ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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