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स्युब्रह्मचरणाद्धेतोवर्णिनो ब्राह्मणास्त्रयः ।
ब्रह्मचय्य विनापि स्युः, सम्भवाद् ब्राह्मणा इति ॥३॥" पृ० १०६
"प्रण : य हरेर्भवान्या, वाण्या गणेशस्य च पाद पद्मम् । तनोति रत्नेश्वरचक्रवर्ती, राजादिवृत्तिं पठतां हिताय ॥१॥"
कातन्त्र व्याकरण, जैन समाज में चिरकाल से पाठ्य व्याकरण माना जा रहा था, खासकर जैन साधु इसका अध्ययन भी करते थे, चौदहवीं शताब्दी के अंचल गच्छीय मेरुतुङ्ग सूरि ने तत्कालीन गुर्जर भाषा में इस पर टीका बनाई थी, जो आज भी एक दो जैन भण्डारों में उपलब्ध होती है, इससे ज्ञात होता है कि इस पर जैनाचार्यों ने संस्कृत टीकायें भी बनायी होंगी, परन्तु इसकी दौर्गसिं ही वृत्ति के सिवा अन्य संस्कृत टीका हमने नहीं देखी।
इसवी सन् १८८४ में कलकत्ता में पं० जीवानन्द विद्यासागर भट्टाचार्य द्वारा प्रकाशित कातन्त्र की पुस्तक इस समय हमारे सामने है, यह दुर्गसिंह कृत वृत्ति के साथ मुद्रित हुई है। इसको कर्ता ने मुख्य चार विभागों में विभक्त किया है,-सन्धि, नाम, आख्यात, कृदन्त इस विभाग में कुल ६ पाद और सम्मिलित सूत्र ३३६ है । संधि विभाग में पांच पाद और ७७ सूत्र हैं। नाम विभाग में विभक्ति स्त्री त्रत्यय, समास, तद्वित इस विभाग में कुल ६ पाद और संमिलित ३३६ सूत्र हैं । इस विभाग के छठे पाद के अन्तर्गत ४१ सूत्र की वृत्ति के बाद ४२ के पहले, रत्नेश्वर चक्रवर्ती कृत राजादि गण का ससूत्र विवरण दिया गया है, इस विवरण में दिए गए राजादि गणों की संख्या ५६ है। तीसरे आख्यात विभाग के सात पाद हैं और कुल सूत्र संख्या ४३६ है। इस व्याकरण का चतुर्थ विभाग कृदन्त विषयक है, इस विभाग के आठ पाद हैं, जिन की सूत्र संख्या ५४६ है, यह व्याकरण प्रारम्भ से ही अल्प परिमाण में था, इसके "कातन्त्र" नाम से भी यह ग्रन्थ छोटा थ । 'का" शब्द अल्प वाचक है, यहां, इसका नामार्थ “अल्प तन्त्र" यही होता
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