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________________ बल्कि अन्य भी सैकड़ों सूत्र मूल में से निकालकर महावृत्ति में वार्तिकों के रूप में लेने का ठान कर मूल सूत्रों को पांव अध्यायों में विभक्त कर उन पर महावृत्ति बनाना शुरू किया, जिन स्थानों से मूल सूत्र कम किये थे, वहां सर्वत्र वृत्ति में वात्तिक रख कर उनकी पूर्ति की, इस प्रकार की योजना करने का उनका विचार इस कारण से हुआ कि इस प्रकार से बना हुआ "शब्दानुशासन' देवनन्दि निर्मित मान लिया जायगा, वार्तिक अन्य किसी विद्वान् के नाम चढा दिए जाएंगे और पातञ्जल महाभाष्य का अनुकरण करके महावृत्ति स्वयं बना देंगे, पाणिनीय सूत्रों परके कात्यायन के वार्तिकों की तरह जैनेन्द्र के वार्तिकों का कर्ता किस को बताना इस बात की समस्या का हल करना अभयनन्दि के लिए कठिन हो गया यदि वर्तमान कालीन विद्वान् का नाम बता देते हैं तो वार्तिक तथा मूल व्याकरण के प्राचीन पुस्तक मूलादर्श दिखाने की मांग करने पर दिखाने की कठिनता उपस्थित होगी। इन उलझनों से बचने के लिए अभयनन्दि ने मूल शब्दानुशासन में देवनन्दि का और वात्तिकों में अन्य किसी विद्वान् विशेष का कर्ता के रूप में नाम लिखना ही छोड़ दिया, महावृत्ति के मंगलाचरण के एक श्लोक में प्रयुक्त "देवनन्दितपूजेशे नमस्तस्मै स्वयम्भुदै" इस श्लोकार्थ के स्वाभाविक अर्थ से तो टीकाकार ने परमात्मा को ही नमस्कार किया है, परन्तु "देवनन्दित" इन शब्दों के साथ आये हुए “देवनन्दि" इन चार अक्षरों से आजकल के विद्वान् इसके कर्त्ता को "देवनन्दि" मानते हैं, परन्तु अभयनन्दि के पास देदनन्दि निर्मित व्याकरण होता तो अपनी कृति में देवनन्दी को स्पष्ट रूप से नमस्कार क्यों नहीं करते ? सच बात तो यह है कि देवनन्दि को कर्ता मानने पर, उन पर प्राचीन पुस्तक दिखाने का उत्तरदायित्व आता था, जिसे टालने के लिए उन्हें उक्त प्रकार का द्राविड़ प्राणायाम करना पड़ा। __ अभयनन्दि ने यद्यपि पाणिनीय व्याकरण का अनुकरण नहीं छोड़ा, फिर भी उनके मन में जैनेतर विद्वानों पर अरुचि आ ही गई थी, यही कारण है कि उन्होंने शाकटायन की तरह केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org W
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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