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देवनन्दि कृत होता और उसके निर्माण का समय छठी सदी होता तो इस पर प्राचीन टीकाएं तथा न्यास अथवा महावृत्ति भी अवश्य होती, परंतु ऐसा कुछ भी नहीं । १६ वीं सदी के एक भट्टारकजी ने अपने शिलालेख में "जैनेन्द्र " पर श्राचार्य " प्रभाचंद्र" का न्यास होने की बात कही है, परंतु इस बात को दतंकथा से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता, क्योंकि पंद्रहवीं शती तक के किसी शिलालेख या ग्रंथ प्रशस्ति में जैनेन्द्र पर प्रभाचन्द्र के न्यास होने की बात नहीं लिखी, तब १६ वीं शताब्दी के भट्टारक जी "न्यास" होने की बात कैसे कह सकते हैं, हमारी राय में तो यह कथन कपोल कल्पना अथवा स्वप्न दर्शन से अधिक महत्त्व नहीं रखता, इन सभी बातों का पर्यालोचन करने के उपरांत यही मत स्थिर हुआ है, कि जैनेन्द्र व्याकरण का निर्माण ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध अथवा बारहवीं सदी के पूर्वार्ध में होना चाहिए ।
आचार्य देवनन्दी भट्टाकलंक के पूर्वगामी थे, यह बात पहले कह आए हैं, इस स्थिति में प्रश्न हो सकता है कि ११ वीं १२ वीं शती के मध्य में निर्मित जैनेन्द्र "महावृत्ति" "शब्दार्णव चन्द्रिका " के पढ़ने तथा अवलोकन से हमने जो निष्कर्ष निकाला है, वह यह है कि "जैनेन्द्र व्याकरण" का निर्माण महावृत्तिकार अभयनन्दि और उसके विद्वान् सहायकों के परिश्रम का फल है, हमारे इस निर्णय के अनेक कारण हैं अभयनन्दि ने सर्व प्रथम पाणिनीय व्याकरण का सम्पूर्ण अनुकरण किया था और उसमें पाणिनीय लिखित स्वर सम्बन्धी सूत्रों को भी जैनेन्द्र में सम्मिलित किया था, उनका मानना था कि इस प्रकार का व्याकरण तैयार करने से स्वर संकेतों के कारण ब्राह्मण समाज भी इसको पसन्द कर लेगा, परन्तु उनकी धारणा निष्फल हुई, ब्राह्मण तो क्या जैन समाज ने भी उचित आदर नहीं किया । उन्होंने समझ लिया कि व्याकरण के लोकप्रिय न बनने का कारण स्वर सम्बन्धी सूत्र हैं, इस कारण उन्होंने “सर्व प्रथम आदर्श" को यों ही रखकर नवीन रूप में जिनेन्द्र का निर्माण शुरू किया । स्वर सम्बन्धी सूत्रों को ही अपने व्याकरण में से नहीं निकाला,
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