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निमित्त व्याकरण के सूत्रों को उद्धृत किया है उनमें भी जैनेन्द्र का नाम तो क्या उसका सूत्रोद्धरण भी दृष्टिगोचर नहीं होता, कल्पसूत्रों की टीकाओं तथा कल्पान्तर्वाच्य टिप्पणों में जहां भगवान् महावीर का लेखशाला गमन का प्रसंग आया है, वहां ग्रंथकारों ने प्राचीन मध्यकालीन अनेक व्याकरणों की नामावलियां दी हैं, उनमें भी जैनेन्द्र का नाम निर्देश नहीं मिलता, आचार्य बुद्धिसागर, हेमचन्द्र, मलयगिरि के व्याकरणों के नामों को कल्पान्तर्वाच्यों में स्थान मिला, परंतु श्वेताम्बर साहित्य के १४ वीं शताब्दी तक के किसी ग्रन्थ में जैनेन्द्र का नामोल्लेख नहीं हुआ, ठेठ १६ वीं तथा १७ वीं शती की कल्प- टीकाओं में जैनेन्द्र व्याकरण का नाम सर्वत्र मिलता है, यह तो हुई श्वेताम्बर साहित्य के ग्रंथों में जैनेन्द्र व्याकरण के नामोल्लेख की बात । अब हम दिगम्बर परम्परा के प्राचीन तथा मध्यकालीन साहित्य में जैनेन्द्र-व्याकरण के सम्बंध में क्या प्रमाण उपलब्ध होते हैं, इस पर विचार करेंगे ।
दिगम्बर परम्परा के प्राचीनतर चूर्णी सूत्रों में भट्टारक वीरसेन निर्मित " षट्खण्डागम" की "धवला टीका" और " कषाय पाहुड" की "जयधवला टीका" जितनी भी मुद्रित होकर प्रकाशित हुई है, उन्हें हमने पढ़ा है, परंतु " जैनेन्द्र व्याकरण" का नाम निर्देश नहीं मिला । प्रस्तुत परम्परा के हजारों शिलालेखों तथा प्रशस्ति लेखों में भी विक्रम सं० १९७६ में उत्कीर्ण एक प्रशस्ति में 'जैनेन्द्र' नाम मिला है, इसके पूर्वतन किसी भी शिलालेख या प्रशस्ति में पूज्यपाद के जैनेन्द्र व्याकरण का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं हुआ । आचार्य भट्टाकलंक देव के "सिद्धि विनिश्चय" ग्रंथ के टीकाकार अनन्तवीर्य तथा "न्याय विनिश्चय" के टीकाकार वादीराज सूरि ने अपनी टीकाओं में कहीं कहीं व्याकरण सूत्रों के उद्धरण दिये हैं, परंतु वे उद्धरण भी " पाणिनीय" तथा " शाकटायन व्याकरण" के सूत्रों से अधिक मेल जोल रखते हैं । इससे हमारी मान्यतानुसार विक्रम की ११ वीं शती तक दिगम्बर परम्परा में भी " जैनेन्द्र व्याकरण" का प्रचार नहीं हुआ था । दिगम्बर विद्वानों की मान्यतानुसार यह व्याकरण
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