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२३८ विद्वान् उनका समकालीन ही होना चाहिए देवनन्दि के सत्ता समय के सम्बन्ध में थोड़ा सा ऊहापोह करने के बाद, अब हम जैनेन्द्र व्याकरण के कर्तृत्त्व के विषय में कुछ लिखेंगे।
चौदहवीं शती के वैष्णव कवि वोपदेव के
"इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्न्यापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ॥"
इस श्लोक के आचार्य इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्नि आपिश लि शाकटायन, पाणिनी, अमर और जैनेन्द्र इनको आदि वैयाकरण कह है, परन्तु इस मान्यता में, विशेष तथ्य नहीं, एक तो उक्त श्लोक के निर्माता "वोपदेव' अर्वाचीन व्यक्ति हैं, दूसरा इनके बताये हुए आठ आदि वैयाकरणों का प्राचीन प्रमाणों से समर्थन नहीं होता, आठ आदि वैयाकरणों में से पहले 'इन्द्राचार्य" का नाम अमोघ कालीन शाकटायन व्याकरण में तथा नवमी शताब्दी में सन्दर्भित हुए "महानिशीथ' नामक श्वेताम्बर जैन परम्परा मान्य सूत्र में उपलब्ध होता है, इन दो ग्रन्थों के पूर्ववर्ती किसी भी जैन जैनेतर ग्रन्थ में में "इन्द्राचार्य" के व्याकरणकार होने का उल्लेख हुअा हो ऐसा हमारे ध्यान में नहीं है।
"चन्द्र व्याकरण" के कर्त्ता बौद्ध आचार्य 'चन्द्रगोमी' माने जाते हैं, जिनका समय कतिपय विद्वान् षष्ठी सदी और कोई कोई अष्टमी नवमी का मध्यभाग बताते हैं, वास्तव में चन्द्र व्याकरणकार चन्द्रगोमी है या अन्त कोई चन्द्राचार्य यह निश्चित नहीं, यदि मान भी लिया जाय कि चन्द्रव्याकरण के कर्ता चन्द्रगोमी थे, तो भी इनको आदि वैयाकरण कहना ठीक नहीं।
काशकृत्स्नि आपिशलि ये आदि वैयाकरण कहने योग्य अवश्य हैं, क्यों कि पाणिनीय के वार्तिकों में तथा पातञ्जल महाभाष्य में इनका अनेक स्थानों में नामोल्लेख हुआ है, शाकटायन की चिन्तामणि वृत्ति में भी पाणिनि, काशकृत्स्नि, आपिशलि आदि के नामों
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