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अब रही जैनेन्द्र व्याकरण की बात, जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता को सभी दिगम्बर जैन विद्वान् आचार्य देवनन्दि को मानते हैं, परन्तु देवनन्दि का निश्चित समय विक्रम का षष्ठ शतक था, इस मान्यता में हम शंकित हैं, क्योंकि देवनन्दि ने किसी भी ग्रन्थ में अपना नाम निर्देश तक नहीं किया, उधर प्राचीन प्रशस्तियों तथा शिला लेखों में देवनन्दि का जहां जहां नाम आता है, वे सभी लेख विक्रम की दशवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी के बाद के हैं और उनमें देवनन्दि का नाम भी आठवीं नवमी शताब्दी के आचार्यो के बाद आता है, देवनन्दि का सबसे प्रथम नामोल्लेख आचार्य भट्टाकलंक ने अपने ग्रन्थ में किया है और भट्टाकलंक का अनुमित समय विक्रम की आठवीं शती का उतरार्ध और नवम शतक का पूर्वार्ध ठीक जान पड़ता है, इस परिस्थिति में देवनन्दि का समय उसके पूर्व विक्रम के अष्टम शतक का उत्तरार्द्ध हो तो आपत्ति नहीं, श्वेताम्बर परम्परा के युग प्रधान आचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में दिगम्बर परम्परा का सविस्तार खण्डन किया है, उसके पहले श्वेताम्बर आगमों को पुस्तकारूढ़ होकर अन्तिम स्वरूप प्राप्त करने तक के समय में अर्थात् विक्रम के शष्ठ शतक के प्रथम चरण तक श्वेताम्बर आगमों में दिगम्बरों के विरुद्ध कोई उल्लेख नहीं मिलता, इस समय के बाद के भाष्यों में खासकर विशेषावश्यक भाष्य में दिगम्बर मान्यता का खण्डन का श्री गणेश हुआ है, उधर दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ “सर्वार्थसिद्धि" नाम की तत्वार्थ टीका में केवली को कवल-आहार मानने वालों को सांशयिक मिथ्यादृष्टि कहने का प्रारंभ हुआ, आश्चर्य नहीं है कि सर्वार्थ सिद्धकार देवनन्दि हो या अन्य कोई दिगम्बराचार्य, परन्तु उनका समय आचार्य जिनभद्रगणि के सहज पूर्ववर्ती होना चाहिए, आचार्य जिनभद्रगणि का समय विक्रम की सप्तम शती का मध्यभाग माना जाता है, जिनभद्र ने विशेषावश्यक में दिगम्बरों के विरुद्ध जो आक्रमण किया है, उससे तो यही प्रतीत होता है कि केवली को कवलाहार मानने वाले श्वेताम्बर तथा यापनीय जैन संघों को मिथ्यादृष्टि होने का उल्लेख करने वाला 'सर्वार्थ सिद्धिकार' दिगम्बर
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